Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
बंध के सादि आदि चार विकल्प माने हैं।'
उक्त अठारह प्रकृतियों के अजघन्य बंध के सिवाय शेष तीन बंधों में प्रत्येक के सादि और अध्रुव यह दो विकल्प होते हैं। क्योंकि नौवें गुणस्थान में अपनी-अपनी बंधव्युच्छित्ति के समय संज्वलनचतुष्क का जघन्य बंध होता है और शेष ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों का जघन्य बंध दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक को होता है । यह बंध इन गुणस्थानों में आने से पूर्व नहीं होता है, अतः सादि है और आगे के गुणस्थानों में बिल्कुल रुक जाने से अध्रुव है। इसी प्रकार से उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट बंध में भी समझना चाहिए । क्योंकि ये दोनों बंध परिवर्तित होते रहते हैं। जीव कभी उत्कृष्ट और कभी अनुत्कृष्ट बंध करता है।
शेष एक दो सौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों ही प्रकार के बंधों में सादि और अध्रुव यह दो भंग होते हैं। क्योंकि पांच निद्रा, मिथ्यात्व, आदि की बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण इन उनतीस प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध विशुद्धियुक्त बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक करता है । अन्तमुहूर्त के बाद वही जीव संक्लिष्ट परिणामी होने पर उनका अजघन्य बंध करता है। उसके बाद उसी भव में अथवा दूसरे भव में विशुद्ध परिणामी होने पर वही जीव पुनः उनका जघन्य बंध करता है। इस प्रकार से जघन्य और अजघन्य बंध के बदलते रहने से दोनों सादि और अध्रुव होते हैं ।
१ अठाराणऽजहन्नो उवसममेढीए परिवडंतस्स ।
माई सेसविगप्पा सुगमा अधुवा धवाणं पि ।
पंचसंग्रह १६३
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