Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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२०६
शतक
१३ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपयोप्त के स्थिातस्थान संख्यात गुणे हैं। १४ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुण हैं।
इस प्रकार स्थिति के प्रमाण में वृद्धि के साथ स्थितिस्थानों की भी संख्या बढ़ती जाती है।
योग के प्रसंग में योगों के अल्पबहुत्व, स्थितिस्थानों का निरूपण करने के बाद अब अश्याप्त जोवों के प्रति समय जितने योग की वृद्धि होती है, उसका कथन करते हैं ।
पइ खण मसंखगुवरिय अपज पइठिइमसंखलोगसमा । अज्झवसाया अहिया सत्तसु आउसु असंखगुणा ॥५५॥
शब्दार्य-- पइखणं-प्रत्येक ममय में, असंखगुणविरियअसंख्यात गुणा वीर्य वाले, अपज-अपर्याप्त जीव, पइठिईप्रत्येक स्थितिबंध में, असंखलोगसमा - असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण, अज्झवसाया – अध्यवसाय, अहिया अधिक, सत्तसु - सात कर्मों में, आउसु -आयुकर्म में, असंखगुणा - असंख्यात गुणा ।
गाथार्थ-अपर्याप्त जीव प्रत्येक समय असंख्यात गुणे वीर्य वाले होते हैं और प्रत्येक स्थितिबंध में असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय होते हैं । सात कर्मों में तो स्थितिबंध के अध्यवसाय विशेषाधिक और आयुकर्म में असंख्यात गुणे होते हैं। विशेषार्थ ---पूर्व गाथा में स्थितिस्थानों का प्रमाण बतलाया है। अब यहां बतलाते हैं कि अपर्याप्त जीवों के योगस्थानों में प्रति समय असंख्यात गुणी वृद्धि होती है किन्तु पर्याप्त जीवों में ऐसा नहीं होता है। यह असंख्यात गुणी वृद्धि उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समझना चाहिए
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