Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
स्थितिबंध नहीं हो सकता है। किन्तु भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क
और ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देवों के यदि इस प्रकार के संक्लिष्ट परिणाम होते हैं तो वे एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । क्योंकि देव मरकर नरक में जन्म नहीं लेते हैं।
इसीलिये विकलत्रिक आदि पन्द्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मनुष्य और तिर्यंच गति में तथा एकेन्द्रिय आदि तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देवों के बतलाया है। इन अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों तथा सभी बंधयोग्य १२० प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन आगे किया जा रहा है ।
तिरि उरलदुगुज्जोयं छिवट्ठ सुरनिरय सेस चउगइया। आहारजिणमपुत्वोऽनियट्ठि संजलण पुरिस लहूं ॥४॥ सायजसुच्चावरणा विग्घ सुहुमो विउविछ असन्नी। सन्नावि भाउ बायरपज्जेगिदिउ सेसाणं ॥४॥
शब्दार्थ-तिरिउरलदुग-तिर्यचद्विक और औदारिकद्विक, उज्जोयं-- उद्योत नामकर्म, 'छवट्ठ-सेवार्तसंहनन, सुरनिरय- देव और नारक, सेस --बाकी की, चउगइया-चारों गति के मिथ्याष्टि, आहारजिणं आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म को, अपुव्वो-अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती, अनियठि-अनिवृत्तिबादर संपराय वाला संजलण पुरिस - संज्वलन कषाय और पुरुष वेद का, लहुं--जघन्य स्थिति बंध ।
सायजसुच्च-साता वेदनीय, यशःकीर्ति नामकर्म, उच्च गोत्र, आवरणा विग्धं ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरण चार और अंतराय पांच, सुहुमो सूटमसंपराय गुणस्थान वाला, विउविछवैक्रियषट्क, असन्नी असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, सन्नी-संजी, दि
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