Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कमग्रन्थ
इनको अध्रुवबन्धिनी मानने का कारण यह है कि बंध के सामान्य कारणों के रहने पर भी इनका बन्ध नियमित रूप से नहीं होता है अर्थात् कभी बंध होता है और कभी नहीं होता है । इन प्रकृतियों के नियमित रूप से बन्ध न होने का कारण यह है कि इनमें से कुछ प्रकृतियों का बंध तो इसलिए नहीं होता है कि उनकी विरोधिनी प्रकृतियाँ उनका स्थान ले लेती हैं और कुछ प्रकृतियाँ अपनी स्वभावगत विशेषता के कारण कभी बंधती हैं और कभी नहीं बंधती हैं ।
इन तिहत्तर प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने को कारण सहित स्पष्ट करते हैं ।
शरीर नामकर्म के पाँच भेदों में से तैजस, कार्मण शरीर का संसारी जीवों के साथ अनादि संबन्ध होने से ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना है । शेष औदारिक, वैक्रिय और आहारक ये तीन शरीर और इन्हीं नाम वाले अंगोपांग नामकर्म के तीन भेदों में से एक जीव को एक समय में एक शरीर और एक अंगोपांग का ही बंध होता है; दूसरे का नहीं । क्योंकि परस्पर विरोधी होने से एक के बंध के समय दूसरे का बंध नहीं हो सकता है । इसीलिए इनको अध्रुवबंधिनी माना है ।
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समचतुरस्र आदि छह संस्थान भी परस्पर में विरोधी हैं । समचतुरस्र संस्थान कर्म से यदि शरीर का संस्थान -- आकार समचतुरस्र रूप है तो उसमें अन्य संस्थान का बंध, उदय नहीं हो सकता है, अतः वे भी अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में गर्भित किये गये हैं ।
मनुष्य और तिर्यंच प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर ही वज्रऋषभनाराच आदि छह संहननों में से एक समय में एक ही का बंध होता है तथा देव व नारक प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर एक भी संहनन का बंध नहीं होता है। अतएव संहनन नामकर्म अध्रुवबन्धी है ।
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