Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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सादि-सान्त भंग होता है। क्योंकि उनका बन्ध, उदय अध्रुव है, कभी होता है और कभी नहीं होता है । अध्रुवता के कारण ही उनके बंध
और उदय की आदि भी है और अन्त भी है। ___ गो० कर्मकांड में प्रकृतिबंध का निरूपण करते हुए बंध के चार प्रकार बतलाये हैं । सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिनके लक्षण इस प्रकार हैं
सादी अबन्धबन्धे, सेढिअणारूढगे अणादी हु। __ अभवसिद्धम्हि धुवो भवसिद्ध अद्ध वो बंधो ॥१२३॥ जिस कर्म के बंध का अभाव होकर पुनः वही कर्म बंधे, उसे सादि बंध कहते हैं । श्रोणि' पर जिसने पैर नहीं रखा है, उस जीव के उस प्रकृति का अनादि बंध होता है । अभव्य जीवों को ध्रुव बंध और भव्य जीवों को अध्रुव बंध होता है । ___यहां ध्रुव और अध्रुव शब्द का अर्थ क्रमशः अनंत और सान्त ग्रहण किया है। क्योंकि अभव्य का बंध अनंत और भव्य का बंध सान्त होता है।
ध्रुवबन्धिनी ४७ प्रकृतियों में उक्त चारों प्रकार के बंध होते हैं तथा शेष अध्रुवबंधिनी ७३ प्रकृतियों में सादि और अध्रुव यह दो बंध हैं।
कर्मग्रन्थ में ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीन भंग और गो० कर्मकांड में उक्त चार भंग बतलाये हैं। लेकिन इनमें मतभिन्नता नहीं है। क्योंकि कर्मग्रन्थ में संयोगी भंगों को लेकर कथन किया गया है और गो० कर्मकांड में असंयोगी प्रत्येक भंग का, जैसे अनादि, ध्रुव । इसीलिये
१ जिस गुणस्थान तक जिस कर्म का बन्ध होता है, उस गुणस्थान से आगे
के गुणस्थान को यहाँ श्रेणि कहा गया है।
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