Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
संग्रह' में तीसरे से लेकर सातवें तक पाँच गुणस्थानों में सत्ता मानी है ।
कर्मग्रन्थ में ग्यारहवें गुणस्थान तक और कर्म प्रकृति व पंचसंग्रह में सातवें गुणस्थान तक अनंतानुबंधी कषाय की सत्ता मानने के अन्तर का कारण यह है कि कर्मप्रकृति व पंचसंग्रहकार उपशमश्र ेणि में अनंतानुबंधी का सत्व नहीं मानते हैं और कर्मग्रन्थकार उसका सत्व स्वीकार करते हैं । कर्मप्रकृतिकार के मंतव्य का सारांश यह है कि चारित्र मोहनीय के उपशम का प्रयास करने वाला अनंतानुबंधी का अवश्य विसंयोजन करता है ।
आहारक सप्तक और तीर्थंकर प्रकृति को सत्ता का नियम
आहारक सप्तक की गुणस्थानों में सत्ता बतलाने के लिये कहा हैआहारसत्तगं वा सव्वगुणे । यानी आहारक सप्तक की सत्ता विकल्प से सभी गुणस्थानों में है । ऐसा कोई गुणस्थान नहीं कि जिसके वारे में आहारक सप्तक की सत्ता नियम से होने का कथन किया जा सके अर्थात् सभी गुणस्थानो में इसकी अध्रुव सत्ता है ।
इसका कारण यह है कि आहारक शरीर नामकर्म प्रशस्त प्रकृति है और इसका बंध किसी-किसी विशुद्ध चारित्रधारक अप्रमत्त संयमी को होता है । जब कोई अप्रमत्त संयमी आहारक
शरीर का बंध
१ सासायणंत नियमा पंचसु भज्जा अओ पढमा । - पंचसंग्रह ३४२ गो० कर्मकांड गाथा ३६१ मे उक्त मतभेद का 'णत्थि अणं उवसमगे' पद द्वारा उल्लेख किया है तथा दोनों मतों को स्थान दिया है । २ (क) शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारक चतुर्दश पूर्वधरस्यैव ।
- तत्त्वार्थसूत्र २।४६
(ख) आहारक शरीर और तीर्थकर प्रकृति के बंध के कारण का संकेत पंचसंग्रह में किया है
तित्थयराहाराणं बंधे सम्मत्तसंजमा हेऊ ।
-पंचसंग्रह २०४
तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध में सम्यक्त्व और आहारक के बंध में संयम कारण है ।
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