Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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विशेषार्थ - गाथा में उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों का कथन किया गया है कि बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से किस प्रकृति का कौन उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है ।
सर्वप्रथम तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी का संकेत करते हुए कहा है कि - 'अविरयसम्मो तित्थं' अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी है । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी मनुष्य है । इसका कारण यह है कि यद्यपि तीर्थंकर प्रकृति का बंध चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान तक होता है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश से ही बंधती है और वह उत्कृष्ट संक्लेश तीर्थंकर प्रकृति के बंधकों में से उस अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य के होता है जो अविरत सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व ग्रहण करने से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में नरकायु का बंध कर लेता है और बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ग्रहण करके तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है, वह मनुष्य जब नरक में जाने का समय आता है तो सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व को अंगीकार करता है । जिस समय में वह सम्यक्त्व को त्याग कर मिथ्यात्व को अंगीकार करता है, उससे पहले समय में उस अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य के तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है ।
देवगति और नरकगति में तीर्थंकर प्रकृति का बंध तो होता है किन्तु वहां तीर्थंकर प्रकृति का बंधक चौथे गुणस्थान से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख नहीं होता है और ऐसा हुए बिना तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का कारण उत्कृष्ट संक्लेश नहीं हो सकता। इसीलिए तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के लिए
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