Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
સદ
पांच जाति, नरक आदि चार गति, शुभ-अशुभ विहायोगति), कुल मिलाकर ये ७८ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं ।
शतक
इनको जीवविपाकी मानने का कारण यह है कि क्षेत्र आदि की अपेक्षा के बिना ही जीव को ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणों तथा इन्द्रिय, उच्छ्वास आदि में अनुग्रह, उपघात रूप साक्षात फल देती हैं । जैसे कि ज्ञानावरण की प्रकृतियों के उदय से जीव अज्ञानी होता है, दर्शनावरण के उदय से जीव के दर्शनगुण का घात होता है, मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय से जीव के सम्यक्त्व और चारित्रगुण का घात होता है तथा पांच अन्तरायों के उदय से जीव दान आदि दे या ले नहीं सकता है । साता और असाता वेदनीय के उदय से जीव ही सुखी और दुखी होता है इत्यादि । अतः गाथा में बताई गई ७८ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं ।
'आऊ चउरो भवविवागा' यानी नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु ये चारों आयु भवविपाकी हैं। क्योंकि परभव की आयु का बंध हो जाने पर भी जब तक जीव वर्तमान भव को त्याग कर अपने योग्य भव को प्राप्त नहीं करता है, तब तक आयु कर्म का उदय नहीं होता है । अतः परभव में उदय योग्य होने से आयुकर्म की प्रकृतियां भवविपाकी हैं।
इस प्रकार से जीवविपाको और भवविपाकी प्रकृतियों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के नाम व बंधद्वार का वर्णन करने के लिये बंध के भेदों को बतलाते हैं । पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ और बंध के भेव
नामधुवोदय चउतणु वघायसाहारणियर जोयतिगं । पुग्गल विवागि पयइठिहरसपएसत्ति ॥२१॥
बंधो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org