Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
१३०
शतक
जो उसका अबाधाकाल कहलाता है। इस अबाधाकाल में कर्म विपाक के उन्मुख होता है और अबाधाकाल बीतने पर अपना फल देना प्रारम्भ कर उस समय तक फल देता रहता है जब तक उसकी स्थिति का बन्ध है। इसीलिये ग्रन्थकार ने अबाधाकाल का अनुपात बतलाया है कि जिस कर्म की जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उस कर्म की उतने ही सौ वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अबाधाकाल समझना चाहिये।
इसका सारांश यह है कि एक कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थिति में सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। अर्थात् आज किसी जीव ने एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाला कर्म बांधा है तो वह आज - से सौ वर्ष बाद उदय में आयेगा और तब तक उदय में आता रहेगा जब तक एक कोडाकोड़ी सागरोपम काल समाप्त नहीं हो जाता है ।
अभी तक जिन कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है और शेष रही जिन प्रकृतियों की आगे स्थिति बतलाने वाले हैं, उसमें अबाधाकाल भी सम्मिलित है। इसलिये स्थिति के दो भेद हो जाते हैं-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा और अनुभवयोग्या । बंधने के बाद जब तक कर्म आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल का परिमाण कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति है और अबाधाकाल रहित स्थिति का नाम अनुभवयोग्या स्थिति कहलाता है। यहाँ जो कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, वह कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति सहित है और अनुभवयोग्या स्थिति को जानने के लिये पहली कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में से अबाधाकाल कम कर देना चाहिये,' जो इस प्रकार है१ इह द्विधा स्थितिः- कर्मरूपतावस्थानलक्षणा, अनुभवयोग्या च । तत्र
कर्मरूपतावस्थान लक्षणामेव स्थितिमधिकृत्य जघन्योत्कृष्ट प्रमाण मिदमवगन्तव्यम् । अनुभवयोग्या पुनरवाधाकाल हीना ।
- कर्मप्रकृति मलयगिरि टीका, पृ० १६३
..
.
...
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org