Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पचम कर्मग्रन्थ
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है।' पुण्य प्रकृति को शुभ या प्रशस्त प्रकृति तथा पाप प्रकृति को अशुभ या अप्रशस्त प्रकृति भी कहते हैं। जिन-जिन कर्मों का बंध होता है, उन सभी का विपाक केवल शुभ या अशुभ ही नहीं होता है, लेकिन जीव के अध्यवसाय रूप कारण की शुभाशुभता के निमित्त से शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के विपाक निर्मित होते हैं। शुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक शुभ और अशुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक अशुभ होता है । अध्यवसायों की शुभाशुभता का कारण संक्लेश की न्यूनाधिकता है अर्थात् जिस परिणाम में संक्लेश जितना कम होगा वह परिणाम उतना अधिक शुभ और जिस परिणाम में संक्लेश जितना अधिक होगा वह परिणाम उतना अधिक अशुभ होगा। कोई भी एक परिणाम ऐसा नहीं जिसे निश्चित रूप से शुभ या अशुभ कहा जा सके। फिर भी जो शुभ और अशुभ का व्यवहार होता है, वह गौण और मुख्य भाव की अपेक्षा से समझना चाहिये। अतः जिस शुभ परिणाम से पुण्य प्रकृतियों में शुभ अनुभाग बंधता है, उसी परिणाम से पाप प्रकृतियों में अशुभ अनुभाग भी बंधता है। इसी प्रकार जिस परिणाम से पाप प्रकृतियों में अशुभ अनुभाग बंधता है, उसी परिणाम
१ बौद्ध दर्शन में भी कर्म के दो भेद किये हैं-कुशल अथवा पुण्यकर्म
और अकुशल अथवा अपुण्यकर्म । जिसका विपाक इष्ट होता है, वह कुशल कर्म और जिसका विपाक अनिष्ट होता है, वह अकुशल कर्म है । सुख का वेदन कराने वाला पुण्य कर्म और पाप का वेदन कराने वाला अपुण्य कर्म है-कुशलं कर्म क्षेमम्, इष्ट विपाकत्वात्, अकुशलं कर्म अक्षेमम्, अनिष्ट विपाकत्वात् । पुण्यं कर्म सुखवेदनीयम्, अपुण्यं कर्म दुःखवेदनीयम् ।
-अमिधर्म कोष योगदर्शन में भी पुण्य और पाप भेद किया है-कर्माशयः पुण्यापुण्यरूपः।
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