Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
જર
ध्रुवसत्ता प्रकृतियों के ध्रुवसत्ता वाली मानने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब शेष प्रकृतियों को अध्रुवसत्ता वाली मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं ।
सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की सत्ता अभव्यों के तो होती ही नहीं है किन्तु भव्यों में भी बहुतों को नहीं होती है । तेजस्काय और वायुकाय के जीव जब मनुष्यद्विक की उवलना कर देते हैं तब मनुष्यद्विक की सत्ता नहीं होती है, इसीलिये मनुष्यद्विक को अध्रुवसत्ता माना है । वैक्रिय एकादश प्रकृतियों की सत्ता अनादि निगोदिया जीव के नहीं होती है तथा जिसने बस पर्याय प्राप्त नहीं की हो, उसके बंध का अभाव होने से अथवा बंध करके स्थावर में जाने पर उनकी स्थिति का क्षय होने से तथा एकेन्द्रिय में जाकर उनकी उद्वलना करने वाले जीव के भी सत्ता नहीं रहने से वैक्रिय एकादश की सत्ता अध्रुव मानी है ।
सम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थंकर नामकर्म किसी को होता है और किसी को नहीं होता है तथा स्थावरों के देवायु और नरकायु का, अहमिन्द्रों (नव ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर के देव) के तिर्यंचायु का, तेजस्काय व वायुकाय और सप्तम नरक के नारकों के मनुष्यायु का सर्वथा बंध न होने के कारण उनकी सत्ता नहीं रहती है । इसीलिए इन प्रकृतियों की गणना अध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों में की जाती है ।
आहारकसप्तक की सत्ता संयम के होने पर भी किसी के होती है और किसी के नहीं होती है। सभी संयमधारियों को आहारक शरीर होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं है । उच्च गोत्र भी अनादि निगोदिया जीवों के नहीं होता है, उद्वलन हो जाने पर तेजस्काय और वायुकाय के जीवों के उच्च गोल नहीं होता है । इसीलिये अट्ठाईस प्रकृतियां अध्रुवसत्ता हैं ।
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