Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सतक
कर्मग्रन्थ में सादि-अनन्त भंग न बन सकने के कारण संयोगी तीन भंग माने हैं और गो० कर्मकांड में प्रत्येक भंग बन सकने से चार । इसी प्रकार कर्मग्रन्थ में अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में एक सादि-सान्त भंग बताया है और गो० कर्मकांड में सादि और अध्रुव-दो भंग कहे हैं । लेकिन इसमें भी अन्तर नहीं है । क्योंकि सादि और अध्रुव यानि सान्त को मिलाने से संयोगी सादिसान्त भंग बनता है और दोनों को अलग-अलग गिनने से वे दो हो जाते हैं। प्रकृतिबंध के भंगों के बारे में कार्मग्रन्थिकों में एकरूपता है, लेकिन कथनशैली की विविधता से भिन्नता-सी प्रतीत होती है। ___ इस प्रकार से बंध और उदय प्रकृतियों में अनादि-अनन्त आदि भंगों का क्रम जानना चाहिये । यह सामान्य से कथन किया है। विशेष कथन ध्रुवोदयी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों का नाम निर्देश करने के अनन्तर यथास्थान किया जा रहा है ।
अब आगे की गाथा में ध्रुवोदय प्रकृतियों के नामों को बतलाते हैं। ध्रुवोदय प्रकृतियाँ
निमिण थिर अथिर अगुरुय सुहअसुहं तेय कम्म चउवन्ना। नाणंतराय दंसण मिर्छ धुवउदय सगवीसा ॥६॥
शब्दार्थ - निमिण-निर्माण नामकर्म, थिर स्थिर नामकर्म, अथिर-अस्थिर नामकर्म, अगुरुय अगुरुलधु नामकर्म, मुह-~-शुभ नामकर्म, असुहं—अशुभ नामकर्म, तेय -- तेजस शरीर, कम्म -कार्मण शरीर, चउवन्ना-वर्णचतुष्क. नाणंतराय-ज्ञानावरण अंतराय कर्म के भेद, दंसण - चार दर्शनावरण, मिच्छ – मिथ्यात्व मोहनीय, धुव उदय-ध्र वोदयी, सगवीसा सत्ताईस ।
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