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59. पुण्य कर्म की सर्वमान्य प्रकृतियां कितनी हैं? उ. पुण्य कर्म की सर्वमान्य प्रकृतियां 42 हैं
1. सातावेदनीय कर्म की - 1 प्रकृति 2. शुभ आयुष्य कर्म की - 3 प्रकृति 3. शुभ नाम कर्म की - 37 प्रकृतियां 4. उच्च गोत्र कर्म की - 1 प्रकृति
कुल 42 प्रकृतियां 60. पुण्य का बंध संवर से होता है या निर्जरा से? उ. निर्जरा से कर्म कटते हैं साथ ही सहज पुण्य का बंध होता है। संवर से कर्म
रुकते हैं। 61. पाप कर्म किसे कहते हैं? उ. जिसके वर्ण आदि अशुभ हैं और जिसका विपाक अशुभ है वह पाप कर्म
62. पाप कर्म में चार स्पर्श कौनसे हैं?
उ. शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष। 63. पाप का बंध कितने गणस्थान तक होता है? उ. दसवें गुणस्थान तक। 64. पाप बंध का मुख्य हेतु क्या है?
उ. मात्र असत् प्रवृत्ति (अशुभ योग आश्रव)। 65. क्या पाप का स्वतंत्र बंध माना जा सकता है? उ. वस्तुतः पुण्य व पाप दोनों का बंध स्वतंत्र नहीं है। दोनों ही तत्त्व सत्
व असत् क्रिया के फलित हैं। स्वतंत्र अस्तित्व है धर्म और अधर्म का। निर्जराजन्य धर्म के साथ पुण्य का तथा अधर्म मात्र के साथ पाप का बंध
जुड़ा हुआ है। 66. पाप की अवान्तर प्रकृतियां कितनी हैं?
उ. कर्मों की 148 प्रकृतियों में 106 प्रकृतियां पाप की हैं। 67. पाप कर्म का बंध किस कर्म के उदय से होता है? उ. मोहनीय कर्म के उदय से पाप कर्म का बंध होता है।
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कर्म-दर्शन 23