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शुभ कर्म का बंध होता है। शेष छह कर्मों से शुभ-अशुभ दोनों का बंध नहीं होता।
45. भवोपग्राही कर्म किसे कहते हैं और वे कितने हैं? उ. चार अघाति कर्म ही भवोपग्राही कर्म है। घाति कर्मों का क्षय होने के बाद
भी जब तक भवोपग्राही (अघाति कर्म) कर्मों का बंधन नहीं टूटता तब तक जीव की मुक्ति नहीं होती। ये कर्म जीव के भव-भ्रमण के हेतुभूत हैं। तीर्थंकर और केवली भी जब तक इनसे मुक्त नहीं होते, उन्हें संसार में रहना पड़ता है। इस दृष्टि से इन्हें भवोपग्राही कर्म कहते हैं। ये चौदहवें गुणस्थान
तक बने रहते हैं। 46. पुण्य कर्म किसे कहते हैं? उ. जिसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि शुभ हैं तथा जिसका विपाक शुभ है,
वह पुण्य कर्म है। 47. द्रव्य पुण्य और भाव पुण्य किसे कहते हैं? उ. शुभ परिणामों से जीव के जो कर्म वर्गणा योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है
वे द्रव्य पुण्य कहलाते हैं। जब वे गृहीत पुद्गल उदय में आकर आत्मा को
शुभ फल देते हैं, तो भाव पुण्य कहलाते हैं। 48. पुण्य चतु:स्पर्शी है या अष्टस्पर्शी?
उ. पुण्य चतुःस्पर्शी है। 49. पुण्य कर्म पुद्गल सूक्ष्म है या स्थूल? उ. पुण्य परमाणु के समान न अति सूक्ष्म है और न अति स्थूल है। 50. पुण्य की इच्छा करनी चाहिए या नहीं? उ. पुण्य की इच्छा नहीं करनी चाहिए। पुण्य की इच्छा करने से एकान्त
(केवल) पाप लगता है जिससे जीव को इस लोक में दुःख पाना पड़ता है
और उसका शोक-संताप बढ़ता जाता है। (पुण्य बंधन है, बंधन की इच्छा
करना पाप है। इसलिए पुण्य बंध की इच्छा नहीं करनी चाहिए।) 51. पुण्यफल को त्यागने से अथवा उसका भोग करने से क्या होता है? उ. पुण्य से प्राप्त वस्तुओं का त्याग करने से निर्जरा होती है और जो पुण्यफल को आसक्त होकर भोगता है उसके चिकने कर्मों का बंध होता है।
कर्म-दर्शन 21