Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१.
लगे। जब विचार संघर्ष, कषाय-वृद्धि, छल प्रपंच स्वार्थ एवं अहंकार का प्रादुर्भाव हो रहा था और इसके लिए
के नेतृत्व की परम आवश्यकता अनुभव की जा रही थी तभी एक विशेष घटना घटित हुई। एक यगल स्वेच्छया इधर-उधर घूम रहा था। सहसा सामने एक निर्मल श्वेत, सुन्दर कान्तिवाला बलिष्ठ हाथी निकला। उसकी उस यगल पर दृष्टि पड़ी। हाथी के हृदय में उस युगल के प्रति स्नेह जाग्रत हुआ। हाथी ने जाति स्मरण ज्ञान से पूर्वभवानूभूत दृश्य का अवलोकन कर जाना कि हम दोनों ही पश्चिम महाविदेह में घनिष्ट मित्र थे। यह अपने सरल स्वभाव से यहाँ युगल के रूप में उत्पन्न हुआ और मैं अपने कपट स्वभाव के कारण हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने अपनी संड से बड़ी प्रसन्नता से उसे उठाया और अपने कन्धे पर बैठा दिया। अन्य युगलों को इस घटना से बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि वाहनारूढ़ कभी किसी व्यक्ति को नहीं देखा था। लोगों ने उस युगल को गजारूढ देखकर सोचा--यह मनुष्य हम सबसे अधिक शक्तिशाली है। अत: इसी को अपना मुखिया बनाना चाहिए। सभी युगलों ने मिलकर उसे ही प्रथम कुलकर के पद पर आसीन किया। विमल उज्ज्वल कान्तिवाले हाथी पर आरूढ़ होने के कारण उसका नाम भी विमलवाहन प्रसिद्ध हो गया।
विमलवाहन के शासन में कुछ समय तक अपराधों में न्यूनता रही पर कल्पवृक्षों की क्षीणता के कारण उन बृक्षों को प्राप्त करने के लिए युगलों में संघर्ष बढ़ने लगा। इस परिस्थिति को देखकर विमलवाहन कुलकर ने कल्पवक्षों का विभाजन कर दिया और कुछ मर्यादाएँ बाँध दी। जो कोई भी युगल मर्यादाओं का उल्लंघन करता था विमलवाहन 'हा' कार नीति से उन पर अनुशासन करने लगा--अपराधी को खेद पूर्वक 'हा! तुमने यह क्या किया? ऐसा विमलवाहन द्वारा कहे जाने पर अपराधी को यह कथन मृत्युदण्ड से भी अधिक लगने लगता था और वह पून: अपराध के लिए रुक जाता था। यह नीति चक्षुष्मान नामक द्वितीय कुलकर तक चलती रही।
जब 'हा' कार! नीति विफल होने लगी और लोगों की अपराध भावना बढ़ने लगी तब चक्षुष्मान कुलकर के पुत्र यशस्वी ने अपराधों को रोकने के लिए नई नीति का प्रचलन किया वह नीति थी 'मा' कार। अर्थात तुम ऐसा मत करो। यशस्वी कुलकर 'हा' को और 'मा' कार दोनों नीति का प्रयोग करने लगे। ये दोनों नीतियाँ यशस्वी के पूत्र अभिचन्द्र के समय तक चलती रही। किन्तु कालान्तर में लोगों की अपराध भावना में वृद्धि होने लगी। हा कार और मा कार नीति दण्ड नीति की अधिक उपेक्षा देखकर प्रसेनजित कुलकर ने धिक्कार नीति का प्रचलन किया। यह धिक्कार सूचक शब्द मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली रहा। ये तीनों नीति पाँचवें प्रसेनजित
और छठे कुलकर मरुदेव तक चलती रही। उस समय जघन्य अपराध वालों के लिए खेद' मध्यम अपराध वालों के लिए 'निषेध' एवं उत्कृष्ट अपराध वालों के लिए तिरस्कार शब्द से दण्ड दिया जाने लगा। यह नीतियाँ सातवें कुलकर नाभि तक बड़ी प्रभाव शाली रही।
अन्य कुलकरों में नाभि कुलकर अधिक प्रतिभा सम्पन्न थे। उनका समन्नत शरीर अप्रतिम रूप अपारबल वैभव के कारण ये एक सफल अनुशासन कर्ता सिद्ध हुए। नाभि कुलकर का युग संक्रांतिकाल का युग था। भोग भूमि समाप्त होकर कर्मभूमि का प्रारंभ हो चुका था। इस संक्रांति काल में लोगों का संघर्ष चरम-सीमा पर था। उस समय तक लोग कुल बनाकर रहते थे और उनके शास्ता कुलकर के नाम से प्रसिद्ध थे। क्रमशः १४ कुल हुए और १५ वे अन्तिम कुलकर नाभि के नाम से प्रसिद्ध हुए। नाभि १५ वें कुलकर हुए। इन्होंने अपने समय की अव्यवस्था को संघर्ष को कम करने के लिए तीनों नीतियों का प्रयोग किया। भगवान ऋषभ का जन्म एवं निर्वाण
नाभिकुलकर की पत्नी का नाम मरुदेवी था। नाभिकुलकर के समय यौगलिक सभ्यता क्षीण हो रही थी और नई सभ्यता का प्रचलन हो रहा था। उस समय वचनाभ का जीव सर्वार्थसिद्ध विमाम से च्यवकर आषाढकृष्ण चतुर्थी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में चन्द्रयोग के समय जब तृतीय आरे के चौरासी लक्ष पूर्व, तीन वर्ष साढ़े सात
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