Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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अपनी बात
कृतज्ञता-प्रकाशन
१. श्री डॉ० पं० दरबारीलाल फोदिया वाराणसी मेरे भ्रातृज हैं। उन्होंने इस ग्रन्थके सम्पादनमें अपनी विद्वत्ताका प्रभावपूर्ण परिचय दिया है तथा सम्पादन संलग्नता और श्रमपूर्वक किया है। उनकी इस कर्तव्यनिष्ठाके प्रति मेरे हृदयमें अत्यन्त आदरभाव है।
२. मेरे भ्रातृज पं० दुलीचन्द्र बीना और सेठ रवीन्द्रकुमार जैन, सुदर्शन प्रेस, बीनाने शुद्धिपत्र तयार करनेमें अपना कार्य छोड़कर सहायता की है । इनका यह सेवाभाव स्मरणीय है । धन्यवाद-वचन
सुन्दर मुद्रणके लिए मैं महावीर प्रिटिंग प्रेस, वाराणसीके स्वामी श्री बाबूलालजी फागुल्ल व उनके समस्त परिकरको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। खेद प्रकाश
मैं ऊपर स्पष्ट कर चुका हूँ कि सोनगढ़पक्षने अपरपक्ष के मतखण्डन में और स्वमतपुष्टिमें अनेक असम्यक प्रयत्न किये हैं। मिथ्या तर्कपद्धतिको अपनाना, जानते हए भी अनावश्यक विकल्प उपस्थित कर उनका खण्डन करना. प्रश्नों के अनुसार जसरनारपक्षपर यारो
माहौल फिर उनका खण्डन करना, वितण्डावाद और लवृत्तिका आश्रय लेना एवं आगमप्रमाणोंका अनर्थ करके आगमका अवर्णवाद करना आदि उनके उदाहरण हैं । फलतः समीक्षा करते समय तत्तत्सन्दर्भ में प्रकृत समीक्षासन्धमें कुछ कठोर शब्दों का भी प्रयोग करना पड़ा है, इसका हार्दिक खेद है । अन्तिम वक्तव्य
स्वानिया तत्त्वचर्चाकी सभीशाका प्रकाशन दीर्घ समयके पश्चात् हो रहा है । समयके दीर्घ होने में एक हेतु यह है कि स्वानिया तत्त्वचर्चाकी समीक्षा लिखनेसे पूर्व मैं सोनगढ़ विचारधाराके विषयमें अधिकाधिक गम्भीरतासे विचार कर लेना चाहता था। इस दृष्टि से मैंने खानिया तत्त्वचर्चाकं पूर्व पं० फूलचंद्रजीकी "जैन तत्वमीमांसा" पर "जैन तत्त्वामांसाकी मीमांसा" पुस्तक लिगती और पश्चात् 'जैन दर्शनमें कार्य-कारणभाव और कारकब्यबस्था" अन्थ लिखा । ये दोनों अन्य क्रमशः सन् १९७२ व १९७३ में प्रकाशित हए। इसके अनन्तर "जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार." ग्रन्थ लिखा। इसका प्रकाशन सन् १९७८ में हुआ। इन तीनोका खानिया तत्त्वच की समीक्षा लिखने में अत्यधिक सम्बन्ध है। दूसरा हैतु यह है कि "जैन बासनमें निश्चय और व्यवहार" ग्रन्यकी रचनाके मध्य में अस्वस्थ हो गया और आगे "खानिया तत्त्वचर्चा" के लेखनके समय मेरी अस्वस्थता बढ़ती ही गई, जिसके कारण मेरा शारीरिक दौर्बल्य भी काफी हो गया । इसी मध्य आँखों में मोतियाबिन्द हो जानेके कारण पढ़ने-लिल्लने में नर्वथा असमर्थ हो गया। बादको एक आँखका ऑपरेशन कराना पड़ा । दूसरी आँखका ऑपरेशन कराना है।
इन प्रत्यवायोंके कारण प्रकृत ग्रन्थ यद्यपि अधिक दीर्घकालके पश्चात् प्रकाशित हो रहा है । फिर भी मुझे इसके प्रकाशित होनेका अत्यन्त हर्ष है, क्योंकि आज भी इसका महत्त्व कम नहीं हुआ है और तब तक कम नहीं होगा जब तक सोनगढ़की एकान्त विचारधाराका सदभाव रहेगा। इसके अतिरिक्त इसमें जैन संस्कृति सैद्धान्तिक पहलूको समझनेके लिए विस्तृत सागनी समविष्ट है । मैंने इसका स्वाध्याय करनेवालों को सुविधाके लिए आरंभमें समीक्षाके पूर्व खानिया तत्त्वचर्चाको भी दे दिया है ।