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हिलता-डुलता? यह विश्व अचल ही होता। जो चल है, उन सबका आलम्बन गति-सहायक तत्त्व धर्मास्तिकाय ही है।" धर्मास्तिकाय का स्वरूप . .
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा धर्मास्तिकाय का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है। द्रव्य से तात्पर्य उसका स्वरूप क्या है? क्षेत्र से तात्पर्य वह किस स्थान में प्राप्य है? काल से तात्पर्य वह कब उत्पन्न हुआ? अब है या नहीं और कब तक रहेगा? भाव से तात्पर्य वह किस अवस्था में है? गुण से तात्पर्य वह जगत् का उपकारी है या नहीं, यदि है तो क्या उपकार करता है?
द्रव्य की दृष्टि से यह एक अखण्ड द्रव्य है। इसे विभाजित नहीं किया जा सकता।
क्षेत्र की दृष्टि से यह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। __ काल की दृष्टि से यह अनादि-अनन्त है। इसकी न कोई आदि है और न अन्त। यह सदा था, है और रहेगा।
भाव (स्वरूप) की दृष्टि से यह अमूर्त, अभौतिक, चैतन्यरहित तथा अगतिशील है।
गुण की दृष्टि से-गति में अपेक्षित सहायता करना है। 2. अधर्मास्तिकाय
अधर्मास्तिकाय दूसरा द्रव्य है। इसे परिभाषित करते हुए लिखा गया-'स्थितिसहायोऽधर्मः' जीव और पुद्गल की स्थिति में उदासीन भाव से सहायता करने वाला द्रव्य अधर्मास्तिकाय है, जैसे-पथिकों के ठहरने में वृक्ष की छाया। एक चलते हुए पथिक के विश्राम में जिस प्रकार एक वृक्ष सहायक होता है, उसी प्रकार गति करते हुए जीव और पुद्गल की स्थिति में अधर्मास्तिकाय सहायक होता है। यद्यपि जीव और पुद्गल में गति की भांति स्थिर