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1. दिशापरिमाण व्रत (दिग्व्रत), 2. भोगोपभोगपरिमाण व्रत, --
3. अनर्थदण्डविरमण व्रत। 6. दिशा-परिमाण व्रत - तीन गुणव्रतों में पहला गुणव्रत दिशा-परिमाण व्रत है। इसे दिग्व्रत भी कहा जाता है। दिग् अर्थात् दिशा। श्रावक को अपने व्यापार या अन्य कार्यवश सभी दिशाओं में यात्रा करनी पड़ती है। पूर्व-पश्चिम आदि सभी दिशाओं में एक सीमा निश्चित कर उस सीमा से बाहर हर तरह के सावध कार्य करने का त्याग करना दिग्व्रत या दिशा-परिमाण व्रत है। यह व्रत श्रावक के हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रहवृत्ति आदि के जो विस्तृत क्षेत्र हैं, उन्हें सीमित कर देता है। जिस श्रावक ने इस व्रत को स्वीकार किया है उसे इसका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। 7. भोगोपभोग-परिमाण व्रत - श्रावक का दूसरा गुणव्रत भोगोपभोग-परिमाणवत है। जो वस्तु एक बार उपयोग में आती है उसे भोग कहते हैं, जैसे- भोजन, पानी आदि। जो वस्तु बार-बार उपयोग में आती है उसे उपभोग कहते हैं, जैसे-मकान, वस्त्र, पलंगं आदि। भोग और उपभोग में आने वाली वस्तुओं का सीमाकरण करना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है।
यह व्रत अहिंसा और अपरिग्रह की रक्षा के लिए है। इसमें श्रावक स्वाद या आसक्तिवश भोगों का सेवन नहीं करता अपितु आवश्यकतावश उनका उपभोग करता है। दिशापरिमाण व्रत में श्रावक मर्यादित क्षेत्र से बाहर के पदार्थ आदि के भोगों से विरत होता है किन्तु निर्धारित क्षेत्र के अन्तर्गत पदार्थों के भोगोपभोग से सर्वथा खुला रहता है, किन्तु इस व्रत को स्वीकार करने वाला श्रावक मर्यादित क्षेत्र में भी द्रव्य, क्षेत्र काल से पदार्थों के भोग की सीमा