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की मर्यादा करती है। कामुकता का जितने अंशों में त्याग किया जाता है, वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। 5. अपरिग्रह अणुव्रत (इच्छापरिमाण व्रत)
श्रावक का पांचवां व्रत अपरिग्रह-इच्छापरिमाण व्रत है। श्रावक पूर्ण अपरिग्रही नहीं हो सकता क्योंकि जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं परिग्रह से ही पूरी होती है। सोना, चांदी, मकान, धन आदि सब परिग्रह हैं। परिग्रह के संग्रह की मर्यादा करना अपरिग्रह अणुव्रत है। दुनियां में धन-संग्रह की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य जैसे-जैसे उसका संग्रह करता है, लालसा बढ़ती ही जाती है। इस बढ़ती लालसा को रोकने के लिए अपरिग्रह अणुव्रत का विधान है। इसका दूसरा नाम इच्छा-परिमाण भी है। इच्छाएं अनन्त हैं। वे कभी पूरी नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है तो दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उन बढ़ती हुई इच्छाओं की सीमा करना इच्छा-परिमाण व्रत है। भगवान महावीर ने पदार्थ के प्रति मूर्छा-आसक्ति को भी परिग्रह कहा है। श्रावक को अपनी इच्छाओं का सीमाकरण करना चाहिए तथा जिन आवश्यक पदार्थों का संग्रह वह करता है, उनके प्रति भी ममत्व नहीं करना चाहिए। गुणवत
, श्रावक के द्वारा स्वीकार किए जाने वाले बारह व्रतो में पांच अणुव्रत तो मूलव्रत हैं और शेष सात व्रत गुणव्रत और शिक्षाव्रत हैं। गुणव्रतों का विधान अणुव्रतों के विकास के लिए किया गया है। इसलिए अणुव्रतों को सोना तथा गुणव्रतों को सोने की चमक-दमक बढ़ाने वाले पॉलिश के समान कहा गया है। अणुव्रत के पालन में जो कठिनाइयां आती है, उन कठिनाइयों को गुणव्रत दूर करते हैं। गुणव्रत के द्वारा अणुव्रत की सीमा में रही हुई मर्यादा को ओर संकुचित किया जाता है। अणुव्रतों की पुष्टि हेतु तीन गुणव्रत बताये गए हैं