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1. परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः-जिसके द्वारा ग्रहण किया जाए, वह पस्ग्रिह है।
2. परिग्रह्यते इति परिग्रहः-जो ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है।
प्रथम निरुक्त के अनुसार पदार्थ को ग्रहण करने में जो कारण हैं, जिसके कारण व्यक्ति संग्रह करता है, वह परिग्रह है और द्वितीय निरुक्त के अनुसार धन, धान्य, क्षेत्र आदि बाह्य पदार्थ परिग्रह हैं। परिग्रह का विपरीत अपरिग्रह है।
वाचस्पत्यम् के अनुसार 'देह यात्रा के निर्वाह के अतिरिक्त भोग के साधनों और धनादि का अस्वीकार अपरिग्रह है।' आत्म-शुद्धि के लिए बाहरी उपकरणों का त्याग अपरिग्रह है। अपरिग्रह और परिग्रह की यह परिभाषा स्थूल दृष्टि से है, जिसका संबंध मात्र वस्तु के अस्वीकार और स्वीकार से है। परिग्रह और अपरिग्रह को सूक्ष्म दृष्टि से परिभाषित करते हुए बताया गया-मूर्छा (आसक्ति) परिग्रह और अमूर्छा (अनासक्ति) अपरिग्रह है। वस्तुतः ‘पदार्थ अपने आप में न परिग्रह है और न अपरिग्रह अपितु उस पदार्थ के प्रति जब ममत्व भाव जुड़ता है, आसक्ति जुड़ती है तब वह परिग्रह बन जाता है और जब ममत्व भाव हटता है, आसक्ति टूटती है तब वह अपरिग्रह बन जाता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सूक्ष्म दृष्टि से पदार्थ के प्रति मूर्छा या आसक्ति का अभाव अपरिग्रह है और स्थूल दृष्टि से पदार्थों का असंग्रह-अस्वीकार अपरिग्रह है। परिग्रह के प्रकार
परिग्रह दो प्रकार का होता है-अंतरंग परिग्रह और बाह्य परिग्रह। व्यक्ति का पदार्थ के प्रति रागात्मक भाव, मूर्छा या आसक्ति का भाव अंतरंग परिग्रह है तथा राग (आसक्ति) के कारण पदार्थों