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मांस आदि का प्रयोग होता है। इनकी प्राप्ति के लिए पशुओं को अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ता है। मधुमेह रोग हेतु 'इन्सुलिन' का प्रयोग किया जाता है, जिसे सूअर, भेड़ या बैल के अग्न्याशय से प्राप्त किया जाता है। त्वचा पर लगाई जाने वाली औषधियों में ग्लिसरीन का व्यापक प्रयोग होता है। लागत कम आए इस दृष्टि से पशु चर्बी से ग्लिसरीन का उत्पादन किया जाता है। जिलेटिन पशुओं की झिल्लियों, हड्डियों आदि को उबालकर प्राप्त किया जाता है। इस जिलेटिन से कैप्सूल तैयार किये जाते हैं। इस प्रकार औषधियों के निर्माण में भी पशुओं के प्रति मानव का क्रूर व्यवहार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। आत्मौपम्यता का विकास
आत्मौपम्यता का अर्थ है-सभी प्राणियों को अपने समान समझना। यह आत्मौपम्यता की भावना तभी विकसित हो सकती है, जब व्यक्ति अहिंसा के मर्म को समझ लेता है। भगवान् महावीर अहिंसा के उपदेष्टा थे। उन्होंने अहिंसा के सन्दर्भ में अनेक ऐसे सूत्र दिये जो आत्मतुला के भाव को विकसित करने वाले हैं। भगवान् महावीर ने एक मौलिक अवधारणा दी। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति-ये सब जीव हैं। जो इनके अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो इनकी हिंसा करता है, वह अपनी हिंसा करता है। इसलिए हमें किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए और उनका प्राण वियोजन नहीं करना चाहिए।
यह शाश्वत सिद्धान्त है कि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। जैसे हमारे साथ कोई बुरा व्यवहार करता है, तो हमें अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार हम दूसरों के प्रति बुरा व्यवहार करते हैं तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता। इसलिए हमें वैसा ही .