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इकाई-5
आचार मीमांसा
जैन धर्म में अहिंसा का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। अहिंसा जैन दर्शन का मूल आधार और प्राण है। अहिंसा वह धुरी है, जिस पर समग्र जैन आचार-विधि घूमती है। यह वर्तमान युग की समस्त समस्याओं का समाधान है। अहिंसा का विकास होने पर न भ्रष्टाचार संभव है और न अपराध संभव है।
अहिंसा का जीवन- व्यवहार में आचरण कैसे हो? इसके लिए आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा प्रशिक्षण की प्रायोगिक प्रक्रिया प्रस्तुत की । बिना नैतिकता के अहिंसा का विकास नहीं हो सकता । नैतिकता के विकास के लिए आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के नियम बनाए, जिनकी स्वस्थ समाज संरचना में अहं भूमिका है। प्रस्तुत इकाई में अहिंसा का स्वरूप, पशु-पक्षियों के प्रति क्रूरता बनाम आत्मौपम्यता, अहिंसा - प्रशिक्षण, अणुव्रत आन्दोलन, अणुव्रत आचार-संहिता, स्वस्थ समाज संरचना का आधार- - अणुव्रत और अणुव्रत के कार्यक्षेत्र, का विवेचन किया गया है।
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1. अहिंसा का स्वरूप
मानव जीवन के दो आधार स्तम्भ हैं- - आचार और विचार | आचार जीवन का व्यावहारिक पक्ष है और विचार सैद्धान्तिक । आदमी जैसा सोचता है, वैसा करता है और जैसा करता है, वैसा सोचता भी है। आचार और विचार - दोनों एक-दूसरे पर आधारित हैं। जैन दर्शन की आचार -मीमांसा अहिंसा पर आधारित है। अहिंसा परमो धर्मः उनका मुख्य घोष है। अहिंसक आचार-1 र-विचार में ही मानव का विकास निहित है। सत्य, अचौर्य आदि व्रत अहिंसा के ही पोषक हैं। जैन धर्म में अहिंसा को सर्वभूतक्षेमंकरी - सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली और मातृ स्थानीय माना गया है। जैन आचार-विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है। सभी नैतिक नियम और मर्यादाएँ