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आदि-आदि आत्महितकारी क्रिया करना विधेयात्मक अहिंसा है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है. और विधेयात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्यात्मक सक्रियता होती है।
जैन दर्शन के अनुसार सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता अतः सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को हानि मत पहुंचाओ। इस कथन में अहिंसा का द्वयर्थी सिद्धान्तविधेयात्मक और 'निषेधात्मक सन्निहित है। विधेयात्मक में एकता का संदेश है-'सबमें अपने आपको देखो'। निषेधात्मक उससे उत्पन्न होता है-'किसी को भी हानि मत पहुंचाओ'। सबमें अपने आपको देखने का अर्थ है-सबको हानि पहुंचाने से बचाना। यह हानि से बचाना, सबमें एक की कल्पना करने से विकसित होता है। अतः अहिंसा का केवल निषेधात्मक स्वरूप ही नहीं विधेयात्मक स्वरूप भी है। अहिंसा के चार विकल्प। .. अहिंसा की परिभाषा से यह स्पष्ट है कि अहिंसा के दो रूप होते हैं-भाव अहिंसा और द्रव्य अहिंसा। मन में यह संकल्प करना कि मैं किसी भी प्राणी का घात नहीं करूंगा, भाव अहिंसा है तथा मन से किये गए संकल्प को क्रिया रूप देना अर्थात् वचन और काय से उसका पालन करना द्रव्य अहिंसा है। भाव अहिंसा और द्रव्य अहिंसा के आधार पर अहिंसा के चार विकल्प इस प्रकार बन सकते हैं
* भाव अहिंसा और द्रव्य अहिंसा दोनों। * भाव अहिंसा किन्तु द्रव्य अहिंसा नहीं।
* भाव अहिंसा नहीं किन्तु द्रव्य अहिंसा। . * न भाव अहिंसा और न द्रव्य अहिंसा।
1. भाव अहिंसा और द्रव्य अहिंसा-कोई व्यक्ति मन में संकल्प करता है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करेगा और