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अहिंसा को परिभाषित करते हुए लिखा गया-'प्राणानामनतिपात: सर्वभूतेषु संयमः अप्रमादो वा अहिंसा'। अहिंसा की इस परिभाषा से तीन बातें फलित होती हैं
1. प्राणों का हनन न करना-जैन दर्शन में श्रोत्रेन्द्रिय आदि दस प्राण माने गए हैं। उनमें से किसी भी प्राण का हनन न करना अहिंसा है।
2. प्राणीमात्र के प्रति संयम रखना-सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण जीवन-व्यवहार अहिंसा है। ...
3. अप्रमत्त रहना-प्रमाद हिंसा और अप्रमाद अहिंसा है। . अप्रमत्त अवस्था में जागरूकता इतनी बढ़ जाती है कि वह प्रमादवश कोई भी हिंसा नहीं करता। ___इस प्रकार जैन दर्शन में हिंसा का संबंध मात्र प्राण-वियोजन करने से नहीं है, उसका व्यापक अर्थ है। किसी भी जीव को उत्पीड़ित करना, शोषण करना, अतिरिक्त श्रम लेना, अनुचित लाभ उठाना, मर्मभेदी कटु शब्द बोलना, अपमानित करना, दूसरों के अधिकारों में कटौती करना आदि-आदि विषम व्यवहार भी हिंसा है। असद् चिन्तन एवं असत्प्रवृत्ति मात्र हिंसा है। सचिन्तन और सत्प्रवृत्ति मात्र अहिंसा है।
जैन दर्शन में हिंसा और अहिंसा के भेद का आधार राग-द्वेष है। जहां राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति है, वहां किसी भी प्राणी के प्राण का वियोजन न होने पर भी भाव-हिंसा है और जहां पर राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति नहीं है, वहां पर किसी भी प्राणी के प्राण का वियोजन हो जाने पर भी भावहिंसा नहीं है, मात्र द्रव्यहिंसा है। अहिंसा के प्रकार
अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ हिंसा न करने से लिया जाता