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जैन विचारकों ने हिंसा को दूसरी तरह से विभाजित कर उसके चार भेद बताये हैं
1. आरंभजा-जीवन निर्वाह के निमित्त भोजन आदि तैयार करने में जो हिंसा होती है, उसे आरंभजा हिंसा कहते हैं।
2. उद्योगजा-खेती-बाड़ी, आजीविका के उपार्जन अथवा उद्योग में व्यवसाय के निमित्त जो हिंसा होती है, उसे उद्योगजा हिंसा कहते हैं। ... 3. विरोधजा-समाज, राष्ट्र आदि पर हुए शत्रुओं या
अत्याचारियों के आक्रमण का विरोध करने में जो हिंसा होती है, उसे विरोधजा हिंसा कहते हैं।
4. संकल्पजा-संकल्पपूर्वक या पहले से सोच-विचार कर मारने का उद्देश्य बनाकर किसी के प्राण का हनन करना संकल्पजा हिंसा है।
प्रथम तीन प्रकार की हिंसा को श्रावक पूर्णत: नहीं छोड़ सकता, आंशिक रूप से छोड़ता है किन्तु संकल्पजा हिंसा उसके लिए सर्वथा वर्जनीय है।
हिंसा के स्वरूप और कारणों को समझने के बाद अहिंसा का स्वरूप स्वतः सामने आ जाता है। अहिंसा की परिभाषा
अहिंसा शब्द का सीधा-सा अर्थ है-हिंसा न करना। संसार के सभी जीव स्थावरकाय और त्रसकाय के भेद से दो भागों में विभक्त हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये स्थावर जीव हैं तथा जिनमें चलने-फिरने का सामर्थ्य होता है, वे त्रस-जीव हैं। त्रस या स्थावर किसी भी जीव की हिंसा न करना ही अहिंसा