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सामान्यतया द्रव्यहिंसा को ही हिंसा माना जाता है। मन में भले ही बुरे विचार हैं, मारने का संकल्प है पर जब तक वह किसी को शारीरिक हानि नहीं पहुंचाता, तब तक वह हिंसा करने का दोषी नहीं समझा जाता। किन्तु जैन दर्शन में हिंसा का बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया और कहा गया-भावहिंसा ही वास्तविक हिंसा है। कर्म-बंधन का कारण है। भावहिंसा के बिना यदि मात्र द्रव्यहिंसा होती है तो वह कर्म-बंधन का कारण नहीं बनती है। हिंसा के कारण
हिंसा एक है पर उसके कारण अनेक हैं। मनोविज्ञान के अनुसार हमारी मौलिक मनोवृत्तियां हिंसा का कारण हैं। कर्मशास्त्र के अनुसार हिंसा का कारण हमारे पूर्वकृत कर्मों का विपाक है। शरीरशास्त्रीय दृष्टि से हिंसा के प्रेरक तत्त्व हमारे जीन एवं रसायन में विद्यमान हैं। निमित्तों का योग पाकर वे रसायन हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण बन जाते हैं। इस प्रकार हिंसा के अनेक कारण बन सकते हैं, जिनमें कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैंहिंसा : आन्तरिक कारक तत्त्व... 1. शरीर के स्तर पर
• नाड़ीतंत्रीय असंतुलन,
* रासायनिक असंतुलन। 2. सूक्ष्म शरीर के स्तर पर
* कर्म-विपाक,
* मलिन आभामंडल। 3. चेतना के स्तर पर
* मानसिक तनाव,