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संलेखना और संथारा में अन्तर .--...
संलेखना और संथारा दोनों ही समाधिमरण की प्रक्रियाएँ हैं। संथारा मृत्यु पर्यन्त-आजीवन किया जाता है। जीवन भर के लिए संथारा स्वीकार करना आसान कार्य नहीं है अतः संथारा की तैयारी के लिए पहले संलेखना करना आवश्यक है। संथारे की पूर्व तैयारी के लिए संलेखना का अभ्यास किया जाता है, तत्पश्चात्. संथारे की योग्यता, क्षमता, मनोबल आदि को देखकर आजीवन संथारा ग्रहण किया जाता है। दोनों का फल समाधिमरण है। इस दृष्टि से संलेखना
और संथारा में अन्तर यही है कि संलेखना कारण है और संथारा उसका कार्य है। संलेखना एक प्रकार से समता की साधना का अभ्यास करना है तथा संथारा पूर्वोक्त अभ्यास को कार्यरूप में परिणत करना है। संथारा के प्रकार
समाधिमरण को संथारा कहते हैं। जैन ग्रन्थों में इसके दो प्रकार बताये गए हैं-1. सागारी संथारा और 2. सामान्य
संथारा।
1. सागारी संथारा
सागारी का तात्पर्य है-आगार (छूट, विकल्प) सहित। संथारा का अर्थ है त्रिविध या चतुर्विध आहार का त्याग। जब अकस्मात् जीवन में ऐसी कोई विपत्ति उपस्थित हो जाती है, जिसमें से जीवित बच पाना संभव प्रतीत नहीं होता, जैसे-आग लग जाना, नदी में गिर जाना, सामने से शेर आदि हिंसक पशुओं का आ जाना आदि। ऐसे संकटपूर्ण अवसरों पर जब मौत सामने दिखाई देती है, उस समय जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा कहलाता है। यह संथारा मृत्युपर्यन्त के लिए नहीं होता। यदि वह उस विकट परिस्थिति से बच जाता है तो वह अपना जीवनक्रम यथावत् चालू