Book Title: Jain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Author(s): Rujupragyashreeji MS
Publisher: Jain Vishvabharati Vidyalay

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Page 193
________________ 184 उत्कृष्ट साधना करता रहे तथा पारणे में शुद्ध आहार ग्रहण करे। फिर अगले चार वर्ष में उक्त विधि से विविध प्रकार से तप करता रहे और पारणे में 'विगय' अर्थात् दूध, दही, घी, तेल, चीनी आदि का परित्याग करे। नौंवें और दसवें वर्ष में उपवास करे तथा पारणे में आयंबिल (दिन में एक बार एक ही अनाज को खाना) तप करे तथा आयंबिल में भी ऊनोदरी तप करे। अगले छः माह में उपवास, दो, तीन, चार आदि दिन का उपवास करे तथा पारणे में आयंबिल तप करे। संलेखना के बारहवें वर्ष के संबंध में विभिन्न आचार्यों के अलग-अलग मत रहे हैं। आचार्य जिनदासगणी के अनुसार बारहवें वर्ष में ऊष्ण जल के आहार के साथ हायमान आयंबिल तप करे। हायमान से तात्पर्य है निरन्तर भोजन और पानी की मात्रा न्यून करते जाना। वर्ष के अन्त में इस स्थिति में पहुंच जाये कि एक दाना अन्न और एक बूंद पानी ग्रहण करे। प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ के अनुसार भी बारहवें वर्ष में भोजन करते हुए प्रतिदिन एक-एक कवल कम करना चाहिए। एक-एक कवल कम करते-करते जब एक कवल आहार पर आ जाएं तब एक-एक दाना कम करें और अंतिम चरण में अनाज का एक दाना ग्रहण करें। इस प्रकार अनशन की स्थिति पहुंचने पर अनशन (संथारा) स्वीकार करे। संथारे की विधि ___ संलेखना के पश्चात् संथारा किया जाता है। संथारा की विधि इस प्रकार है-सर्वप्रथम किसी निरवद्य-शुद्ध स्थान में अपना आसन लगायें और फिर पूर्व या उत्तर दिशा में अपना मुंह करके इस प्रकार संथारा स्वीकार करें-सर्वप्रथम तीन बार नमस्कार महामंत्र बोले, फिर वन्दना, इच्छाकारेणं....., तस्स उत्तरी करणेणं......, लोगस्स का पाठ बोले। उसके पश्चात् अहं भंते! अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा-झूसणां आराहणाए आरोहेमि अर्थात् 'हे भगवन्! अब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना-संथारा का प्रीतिपूर्वक

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