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कर लेता है। जैसे अमुक-अमुक पदार्थों का सेवन नहीं करूंगा, अमुक पदार्थ इतनी बार से अधिक बार काम में नहीं लूंगा या अमुक पदार्थ इतने समय तक ही काम में लूंगा आदि। 8. अनर्थदण्डविरमण व्रत
.. श्रावक का तीसरा गुणव्रत अनर्थदण्ड विरमण व्रत है। अपने . तथा अपने परिवार के जीवन-निर्वाह के लिए श्रावक को आवश्यक हिंसा करनी पड़ती है, उससे वह बच नहीं सकता। किन्तु बिना प्रयोजन के की जाने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति का त्याग करना अनर्थदण्डविरमण व्रत है। इस गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा और अपरिग्रह का पोषण होता है। इस व्रत को स्वीकार करने वाला श्रावक निरर्थक किसी की हिंसा नहीं करता और न निरर्थक वस्तु का संग्रह ही करता है।
क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं-सार्थक और निरर्थक। सार्थक क्रियाएँ वे हैं जिन्हें सम्पादित करना आवश्यक होता है। शेष अनावश्यक क्रियाएँ निरर्थक क्रियाएँ हैं। सार्थक सावध क्रियाओं को करना अर्थदण्ड है और निरर्थक पापपूर्ण क्रियाओं को करना अनर्थदण्ड है। अनर्थदण्ड के अनेक उदाहरण हैं, जैसे-स्नान आदि कार्यों में आवश्यकता से अधिक जल का अपव्यय करना, आवश्यकता से अधिक वृक्ष के पत्तो, पुष्पों को तोड़ना, नल की टोटी; बिजली अथवा पंखों को खुला छोड़ देना आदि। चार शिक्षाव्रत
शिक्षा का अर्थ है-अभ्यास। जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः पुनः विद्या का अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक को कुछ व्रतों का पुनः पुनः अभ्यास करना पड़ता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है। अणुव्रत और गुणव्रत एक ही बार जीवनभर के लिए ग्रहण किये जाते हैं। शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किये जाते हैं। शिक्षाव्रत चार हैं