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विभाग कर देना अतिथिसंविभागवत है। इसमें मुख्य रूप से पांच महाव्रतधारी साधु-संतों को अतिथि कहा गया है। साधु को शुद्ध दान देने की भावना रखना प्रत्येक श्रावक-श्राविका का कर्तव्य है। साधु के निमित्त कोई वस्तु पकाकर, बाजार से मंगवाकर यदि उसे दी जाती है तो वह अशुद्ध दान है। स्वयं के लिए बनाई गई, मंगवाई गई वस्तु का ही दान देना शुद्ध दान है। साधु को अशुद्ध दान देने का त्याग करना और शुद्ध दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है। बारह व्रतों की उपयोगिता
___ आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक जीव-अजीव में श्रावक के बारह व्रतों की उपयोगिता को बताते हुए लिखा है- ..
1. हिंसा की भावना से परस्पर वैमनस्य बढ़ता है। उससे विरोधी भावना बलवती बनती है। उससे मानवता नष्ट होती है। अतः हिंसा त्याज्य है। श्रावक के पहले व्रत का उद्देश्य है-'मेत्ती में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणइ'- सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर-भावना नहीं है।
2. समाज के सारे व्यवहार का आधार सत्य है। उसके बिना एक दिन भी काम नहीं चल सकता। लेन-देन के बिना काम नहीं चलता और वह विश्वास के बिना नहीं होता और विश्वास सत्य के बिना नहीं होता। इसलिए सत्य सदा अपेक्षित है।
3. दूसरों पर अधिकार जमाने, लूट-खसोट करने, डाका डालने और आक्रमण करने से अशांति का वातावरण पैदा होता है। जनता तिलमिला उठती है। चारों ओर भय छा जाता है। अतः स्थायी शांति के लिए सभी अपराधों का त्याग करना सबके लिए अनिवार्य है। श्रावक के अस्तेय-व्रत की यह एक महत्ती उपयोगिता है। चोरी सामाजिक विष है। समाज की उन्नति के लिए भी इस विष का नाश अपेक्षित होता है।