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ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पांच अणुव्रतों तथा दिगवत, भोगोपभोग-परिमाणव्रत और अनर्थदण्डविरमण व्रत-इन तीन गुणवतों का सम्यक् प्रकार से पालन करता है। उनमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगने देता। लेकिन सामायिक आदि शिक्षाव्रतों का यथासमय सम्यक् प्रकार से अभ्यास नहीं कर पाता। यह गृहस्थ जीवन की दूसरी भूमिका है। इसमें नैतिक आचरण की दिशा में आंशिक प्रयास प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रतिमा का समय दो मास का है। 3. सामायिक प्रतिमा -
श्रावक की तीसरी प्रतिमा का नाम सामायिक प्रतिमा है। इस प्रतिमा में सामायिक और देशावकासिक व्रत का निरतिचार-दोषरहित पालन किया जाता है। इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाला श्रावक नियमित रूप से तीनों संध्याओं अर्थात् प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल में मन, वचन और कर्म से निर्दोष रूप से सामायिक की आराधना करता है। सामायिक शिक्षाव्रत स्वीकार करने वाले को त्रिकाल में सामायिक करना और वह भी निरतिचार करना आवश्यक नहीं है। वह एक बार या दो बार भी कर सकता है और उसमें यदि कोई अतिचार-दोष लग जाये तो वह भी क्षम्य है। किन्तु सामायिक प्रतिमा में अतिचार लगना क्षम्य नहीं है। इस प्रतिमा का समय तीन मास
4. पौषधोपवास प्रतिमा . श्रावक की चौथी प्रतिमा का नाम पौषधोपवास प्रतिमा है। श्रावक के लिए कहा गया है कि वह अष्टमी, चतुर्दसी, पूर्णमासी आदि पर्व तिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास करे। श्रावक के बारह व्रतों में पौषध करना ग्यारहवां व्रत है और प्रतिमा की दृष्टि से वह चतुर्थ प्रतिमा है। दोनों में अन्तर इतना ही है कि पौषधोपवास शिक्षाव्रत में नरमी से पालन किया जाता है अर्थात् सामान्यतः