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आत्मा एक द्रव्य है
जो तत्त्व चेतन स्वरूप है, ज्ञानवान है, सभी को जानता- T-देखता है और सुख-दुःख का अनुभव करता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं। जैन दर्शन में आत्मा को अमूर्त, अविनाशी और असंख्यात ( अखण्ड) प्रदेशी द्रव्य माना गया है। द्रव्य के दो लक्षण हैं, पहला-जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त हो, वह सत् (द्रव्य) है। दूसरा- जो गुण- पर्याय से युक्त हो, वह द्रव्य है। आत्मा एक द्रव्य है अतः द्रव्य के ये दोनों लक्षण आत्मा में पाए जाते हैं। आत्मा के पूर्व पर्याय का विनाश (व्यय) होता है और उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है किन्तु द्रव्य दृष्टि से जो पूर्व-पर्याय में था, वही उत्तर - पर्याय में रहता है अतः द्रव्य का पहला लक्षण उत्पाद व्यय और ध्रौव्य आत्मा में पाया जाता है। द्रव्य का दूसरा लक्षण - द्रव्य, गुण और पर्याय युक्त होता है - यह भी आत्मा में पाया जाता है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अमूर्त्तत्व- ये आत्मा के विशेष गुण हैं तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि आत्मा के सामान्य गुण हैं। आत्मा में स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार की पर्याय पायी जाती हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य को आत्मा की स्वभाव पर्याय कहा गया है तथा मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देव गतियों में आत्म-प्रदेशों का शरीर के आकार में परिणमन होने को आत्मा की विभाव पर्याय कहा गया है।
आत्मा का स्वरूप
जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है। उसने आत्मा के अस्तित्व के साथ-साथ उसके स्वरूप का भी प्रतिपादन किया है। जैन दर्शन में शुद्धात्मा (मुक्त आत्मा) और अशुद्धात्मा (संसारी आत्मा) की दृष्टि से आत्मा के दो भेद किये गए हैं। जो सभी कर्मों से मुक्त होकर स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित है, वह शुद्धात्मा है और जो कर्मों से युक्त होने के कारण संसार में अनादि काल से परिभ्रमण कर रही है, वह अशुद्धात्मा है।