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का समय अनादि-अनन्त बताया गया है। भव्य प्राणी जिनमें मोक्ष जाने की योग्यता है, पर अभी तक उन्होंने सम्यक्दृष्टि प्राप्त नहीं की है अतः अनादि काल से वे मिथ्यादृष्टि हैं पर भविष्य में वे सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं, तब उनका मिथ्या दृष्टिकोण समाप्त हो जाएगा, अतः भव्य प्राणी की अपेक्षा से इसे अनादि और सान्त कहा गया है। सम्यक्दृष्टि प्राप्त व्यक्ति पुनः मिथ्यादृष्टि को भी प्राप्त कर सकता है और मिथ्यादृष्टि के बाद पुनः सम्यक्दृष्टि को भी प्राप्त कर सकता है। इस अपेक्षा से इसे सादि-सान्त कहा गया है।
दूसरे गुणस्थान का कालमान छः अवलिका है।
चौथे गुणस्थान का उत्कृष्ट कालमान तैंतीस सागर से कुछ अधिक है। . पांचवें, छठे और तेरहवें गुणस्थान का उत्कृष्ट कालमान कुछ कम करोड़ पूर्व है।
चौदहवें गुणस्थान का कालमान पांच हृस्वाक्षर-अ, इ, उ, ऋ, ल उच्चारण मात्र है।
शेष गुणस्थानों का कालमान अन्तर्मुहूर्त है।
इस प्रकार मोहनीय कर्म की प्रबलता और निर्बलता पर ही इन चौदह गुणस्थानों का निर्माण होता है। जितना-जितना मालिन्य हटता है, उतनी-उतनी आत्म-विशुद्धि होती है और इसी विशुद्धि का नाम गुणस्थान है। प्रथम और तृतीय गुणस्थान अध्यात्म-विकास के न्यूनतम स्थान हैं। द्वितीय गुणस्थान में भी अपक्रमण होता है। चतुर्थ गुणस्थान से क्रमिक ऊर्ध्वारोहण प्रारम्भ होता है और चौदहवें गुणस्थान में आत्मा की पूर्ण विशोधि हो जाती है। विशुद्ध आत्मा की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है। अतः मुक्त आत्मा एक समय में लोक के अन्तिम भाग पर जाकर स्थिर हो जाती है। धर्मास्तिकाय का अभाव होने से उसके आगे गति नहीं होती। मुक्त आत्मा में कोई गुणस्थान नहीं होता।
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