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5. षडावश्यक
'आवश्यक सूत्र' जैन साधना का मूल प्राण है। यह आत्मशुद्धि और दोष - परिमार्जन की प्रक्रिया है। जिस प्रकार किसी स्थान या वस्तु का सावधानी पूर्वक परिमार्जन ( सफाई ) न किया जाये तो उस स्थान या वस्तु पर मैल की परतें जम जाती हैं, उसी प्रकार प्रमादवश हुए दोषों का यदि परिमार्जन (शुद्धि) न किया जाये तो हमारी आत्मा भी मलिन बन जाती है। आवश्यकसूत्र दोष- परिमार्जन और आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है।
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आवश्यक का अर्थ
'आवश्यक' जैन आचार मीमांसा का एक प्रमुख अंग है। 'अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकम्' जो अवश्य करणीय है उसे आवश्यक कहा जाता है। जैसे वैदिक परम्परा में 'सन्ध्या' है, बौद्ध परम्परा में 'उपासना' है, यहूदी और ईसाइयों में 'प्रार्थना' है, इस्लाम धर्म में 'नमाज' है, वैसे ही जैन धर्म में दोषों की शुद्धि और गुणों की वृद्धि के लिए आवश्यक सूत्र है। यह आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों की ओर ले जाता है तथा गुणों से शून्य आत्मा को गुणों से युक्त करता है। जैन आचार में श्रमण और श्रावक दोनों के लिए ही इसे अवश्य करणीय बताया गया है। श्रमण के लिए तो प्रातः काल और सायंकाल दोनों ही समय यह अवश्य करणीय है, इसका कोई अपवाद नहीं है। श्रावक के लिए भी यह अवश्य करणीय है; किन्तु जिनके लिए प्रतिदिन यह संभव नहीं हो सकता वे पक्ष के अंत में पाक्षिक, चातुर्मास के अंत में चातुर्मासिक और वर्ष के अंत में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते हैं।
आवश्यक के अंग
आवश्यक की साधना उसके छह अंगों के द्वारा की जाती है, इसलिए इसे षडावश्यक कहा जाता है। आवश्यक के छह अंग