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श्रमण का आचार
आध्यात्मिक जीवन के उत्कर्ष को निरन्तर गतिशील बनाए रखने के लिए व्रत, नियम आदि का पालन करना तथा मर्यादा- अनुशासन से अपने आचार को संवारना आवश्यक है। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति की साधना करना ही श्रमण का आचार है।
● पांच महाव्रत- 1. अहिंसा महाव्रत, 2. सत्य महाव्रत, 3. अचौर्य महाव्रत, 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत और 5. अपरिग्रह
महाव्रत ।
महाव्रत
पांच समिति – 1. ईर्या समिति, 2. भाषा समिति, 3. एषणा समिति, 4. अदान- निक्षेप समिति, 5. उत्सर्ग समिति । तीन गुप्ति - 1. मनगुप्ति, 2. वचनगुप्ति और 3. कायगुप्ति ।
महान् और व्रत - इन दो शब्दों से बने महाव्रत का अर्थ है— सर्वोच्च नियम, सार्वभौम नियम। महाव्रती साधु अहिंसा, सत्य आदि का पालन पूर्णरूप से करता है। उनके लिए किसी भी परिस्थिति में कोई अपवाद नहीं होता। महाव्रत पांच हैं
1. अहिंसा महाव्रत
पांच महाव्रतों में पहला महाव्रत है— अहिंसा । इसका दूसरा नाम प्राणातिपात - विरमण भी है। सब प्रकार की हिंसा से विरत होना अहिंसा महाव्रत है। श्रमण को स्व और पर दोनों प्रकार की हिंसा से विरत होना होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का विनाश करना स्व- 1 -हिंसा । दूसरे प्राणियों को पीड़ा और हानि पहुंचाना पर हिंसा है।
दसवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि श्रमण जान-बूझकर या अनजान में किसी भी प्राणी की हिंसा मन, वचन और शरीर से न