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स्वयं करे, न दूसरों से करवाये और न करने वाले का अनुमोदन करे। इस प्रकार श्रमण धर्म स्वीकार करते समय वह तीन करण और तीन योग से त्रस और स्थावर समस्त जीवों की हिंसा न करने का संकल्प स्वीकार करता है।
प्रश्न होता है कि श्रमण को जीवन चलाने के लिए खाना-पीना, चलना-फिरना, श्वासोच्छ्वास जैसी क्रियाएँ करना अनिवार्य होता है। बहुत सावधानी रखते हुए भी सूक्ष्म जीवों की हिंसा से सर्वथा बच पाना संभव प्रतीत नहीं होता। ऐसी स्थिति में पूर्णरूप से अहिंसा का पालन कैसे संभव हो सकता है? इस प्रश्न का समाधान तत्त्वार्थसूत्र के 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्र से हो जाता है। प्रमादवश किसी के प्राणों का हनन करना हिंसा है। जब श्रमण का प्रमत्तयोग छूट जाता है तो प्राणों का अतिपात (हनन) होने पर भी उसे हिंसा का पाप नहीं लगता है और प्रमत्तयोग होने पर प्राणों का अतिपात न होने पर भी हिंसा होती है। अहिंसा का संबंध प्राण-वियोजन न करने मात्र से नहीं अपितु संयम से है। संयत प्रवृत्ति होने पर यदि किसी प्राणी का वध हो भी जाए तो वहां हिंसा नहीं है। संयत प्रवृत्ति न होने पर यदि किसी प्राणी का वध न भी हो तो वहां पर हिंसा है। इस दृष्टि से अहिंसा की परिभाषा है-'सर्वभूतेषु संयमः अहिंसा' अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति संयम अहिंसा है। दूसरे शब्दों में प्रमाद हिंसा और अप्रमाद अहिंसा
2. सत्य महाव्रत - श्रमण का दूसरा महाव्रत है-सत्य। किसी भी परिस्थिति में असत्य नहीं बोलना सत्य महाव्रत है। श्रमण जीवनभर के लिए तीन करण और तीन योग से सब प्रकार के असत्य संभाषण का त्याग करता है। जैन आगमों में असत्य के चार प्रकार कहे गए हैं