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शब्द हैं- ब्रह्म और चर्य। ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा और चर्य का अर्थ है-विचरण करना। ब्रह्मचारी व्यक्ति अपनी आत्मा में ही रमण करता है। श्रमण के लिए मैथुनं का पूर्ण त्याग करना अनिवार्य है। उनके लिए मन, वचन एवं काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का पूर्ण निषेध है। ब्रह्मचर्य का मतलब केवल मैथुन (संभोग) से विरत होना ही नहीं है अपितु पांचों इन्द्रियों तथा मन को विषयों की आसक्ति से सर्वथा निवृत्त रखने से है।
जैन आगमों में ब्रह्मचर्य की महिमा बताते हुए कहा गया है-जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है उसे देव, दानव, यक्ष आदि सभी नमस्कार करते हैं। सब तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनुष्य का अन्त:करण प्रशस्त, गम्भीर
और स्थिर होता है। 5. अपरिग्रह महावत
श्रमण का पांचवां व्रत है-अपरिग्रह महाव्रत। श्रमण को समस्त बाह्य (धन-धान्य, स्त्री, संपत्ति, पशु आदि) और आभ्यन्तर (क्रोध, मान आदि) परिग्रह का त्याग करनी होता है। श्रमण मन, वचन और काय-तीनों से ही न स्वयं परिग्रह रखता है, न रखवाता है और न परिग्रह रखने का अनुमोदन करता है। -
यहां यह प्रश्न होता है कि श्रमण को भी जीवनोपयोगी तथा संयमोपयोगी पदार्थों का ग्रहण करना पड़ता है, तो वह पूर्णतया परिग्रह का त्याग कैसे कर सकता है? जीवन-निर्वाह के लिए आहार, पानी तथा संयम-निर्वाह हेतु वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि उपकरण लेने पड़ते हैं?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि जैन दर्शन के अनुसार परिग्रह का वास्तविक अर्थ बाह्य पदार्थों का संग्रह मात्र नहीं है अपितु पदार्थ के प्रति होने वाली आसक्ति और मूर्छाभाव है। श्रमण जो वस्त्र, पात्र आदि रखते हैं, वे संयम की साधना में उपयोगी होने से रखते