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इकाई-4
आचार-मीमांसा प्रत्येक मनुष्य शाश्वत सुख का अभिलाषी होता है। शाश्वत सुख के लिए आध्यात्मिक विकास आवश्यक है। आध्यात्मिक विकास आचार की शुद्धता के बिना संभव नहीं है। आचार की शुद्धता के लिए आचार-मार्ग का अनुसरण आवश्यक है। आचार के दो मार्ग हैं- श्रमणाचार और श्रावकाचार। संन्यास ग्रहण कर अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का अखण्डरूप से पालन करना श्रमणाचार है। गृहस्थ आश्रम में रहकर अहिंसा, सत्य आदि बारह व्रतों का अणुरूप में पालन करना श्रावकाचार है। बारह व्रतों के अभ्यास के बाद विशेष साधना के लिए श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। प्रतिमा से तात्पर्य विशेष नियम, प्रतिज्ञा और संकल्प से है। श्रमण और श्रावक के आचार का मूल अहिंसा है। शेष व्रत अहिंसा के संपोषण के लिए हैं। श्रावक की जीवनशैली के नौ सूत्रों में भी मुख्य अहिंसा है। अच्छा जीवन जीते हुए जीवन के अन्त में संलेखना-संथारा पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त करने की कला जैन धर्म में सिखलाई गई है। प्रस्तुत इकाई में श्रमणाचार, श्रावकाचार, ग्यारह प्रतिमा, जैन जीवनशैली, अपरिग्रह-इच्छा परिमाण तथा संलेखना-संथारा का विवेचन किया गया है।
1. श्रमणाचार भारतीय संस्कृति की दो मूल धाराएँ हैं-ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति। ब्राह्मण संस्कृति ने गृहस्थ आश्रम को विशेष महत्त्व दिया जबकि श्रमण संस्कृति ने श्रमण जीवन को अधिक महत्त्व दिया। जैन परम्परा में श्रमण ऐसे व्यक्ति को कहा गया है जिसकी प्रवृत्तियां श्रमणाचार की संज्ञा से अभिहित हों। भगवान महावीर ने दो प्रकार के आचार का प्रतिपादन किया- श्रमणाचार और श्रावकाचार। उन्होंने कहा प्रत्येक साधक को पहले श्रमणाचार का ज्ञान कराना चाहिए, उसी के पालन का उपदेश देना चाहिए। यदि वह उसके पालन करने