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रात्रिक-प्रतिदिन प्रातःकाल के समय सम्पूर्ण रात्रि में आचरित पापकर्म का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना रात्रिक प्रतिक्रमण
पाक्षिक-पक्ष के अन्त में पूर्णिमा और अमावस्या के दिन सम्पूर्ण पक्ष (15 दिन) में आचरित पापों का विचार कर उसकी आलोचना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है।
चातुर्मासिक-कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और आषाढ़ी पर्णिमा को चार महीने में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है।
___ सांवत्सरिक-प्रत्येक वर्ष संवत्सरी महापर्व के दिन वर्षभर के पापों का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का प्रयोजन
प्रतिक्रमण भाव-परिष्कार का एक बहुत अच्छा प्रयोग है। इसके तीन चरण हैं
1. अइयं पडिक्कमामि-अतीत का प्रतिक्रमण करना। 2. पडुपुण्णं संवरेमि-वर्तमान का संवर करना।
3. अणागयं पच्चक्खामि- भविष्य का प्रत्याख्यान करना। . अतीत का प्रतिक्रमण- प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मन में कभी बुरे भाव न आएं पर निमित्त मिलते ही बुरे भाव आ जाते हैं। बुरे भावों से बचने के लिए अतीत के संस्कारों का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। जब तक अतीत का प्रतिक्रमण नहीं होता, उनका शोधन नहीं होता तब तक भाव-परिष्कार की दिशा में गति नहीं होती।
वर्तमान का संवर–अतीत का प्रतिक्रमण होने पर भी जब तक वर्तमान का संवर नहीं होता, तब तक मलिनता पुनः आती रहती