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मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, वे सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। व्यक्ति क्रोध, रोष, आवेश के कारण क्षमा रूपी आत्म-स्वभाव को भूल जाता है, जिसके कारण वह क्षमा के उत्तम अवसर को चूक जाता है।
क्षमा, तितिक्षा, सहिष्णुता, क्रोधनिग्रह आदि शब्द एकार्थक हैं। दसवैकालिक सूत्र में मुनि के लिए कहा गया-'पुढवीसमे मुणी हवेज्जा'। मुनि पृथ्वी के समान सहनशील हो। पृथ्वी को कोई खोदता है, कोई उस पर थूकता है, कोई मलोत्सर्ग गंदगी फैलाता है तो कोई पृथ्वी को माता समझकर मस्तक झुकाता है। पृथ्वी प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को समभाव से सहन करती है। उसी प्रकार मुनि भी प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को समभावपूर्वक सहन करे। 2. मुक्ति
दस धर्मों में दूसरा धर्म मुक्ति है। मुक्ति का अर्थ है-निर्लोभता। शरीर और पदार्थ जगत् के प्रति अनासक्ति। इसका दूसरा नाम शौच भी उपलब्ध होता है। 'शुचेर्भावः शौचम्' सामान्यतया शौच का अर्थ दैहिक पवित्रता से लिया जाता है, किन्तु जैन परम्परा में शौच का अर्थ मानसिक पवित्रता से लिया गया है। इसका संबंध लोभ कषाय से है। लोभ के कारण व्यक्ति की पवित्रता नष्ट होती है। चित्त कलुषित बनता है। लोभ के कारण व्यक्ति की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। व्यक्ति जीर्ण-शीर्ण हो सकता है किन्तु तृष्णा जीर्ण-शीर्ण नहीं होती। तृष्णा जीर्ण होने पर ही मोक्ष का द्वार खुलता है। मुक्ति धर्म की साधना से चित्त की शुद्धि होती है, तृष्णा समाप्त होती है अत: शरीर और पदार्थ जगत् के प्रति आसक्ति न रखना ही उत्तम मुक्ति या शौच धर्म है।