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परिमार्जन करना प्रतिक्रमण कहलाता है तथा भविष्यकाल में उस अशुभ प्रवृत्ति को न दोहराने का संकल्प करना प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं- द्रव्य प्रत्याख्यान और भाव प्रत्याख्यान । आहार, वस्त्र आदि बाह्य पदार्थों में से किसी पदार्थ का त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान है। राग-द्वेष, कषाय आदि अशुभ मानसिक वृत्तियों का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है।
प्रत्याख्यान से साधक अशांति के मूल कारण आसक्ति और तृष्णा को नष्ट करता है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि हो जाती है, किन्तु भविष्य में पुनः आत्मा मलिन न बने इसके लिए प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है । जिस प्रकार वस्त्र को स्वच्छ करने के बाद पुनः वह मलिन न बने इसलिए उसे आलमारी में रखते हैं उसी प्रकार मन में मलिनता न आये, इसलिए प्रत्याख्यान करते हैं।
इस प्रकार षडावश्यक साधक के लिए अवश्य करणीय क्रिया है। यह सम्पूर्ण अध्यात्मयोग की साधना है।
6. दस धर्म
जैन दर्शन में विविध दृष्टियों से धर्म पर विचार किया गया है पर यहां धर्म से तात्पर्य मानव के विचार और आचार को विशुद्ध बनाने वाले तत्त्व से है। इस दृष्टि से आध्यात्मिक विकास (मोक्ष) की ओर ले जाने वाली समस्त क्रियाएँ धर्म हैं। जैन सिद्धान्त दीपिका में भी 'आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः' आत्मशुद्धि के साधनों को धर्म कहा गया है। दसवैकालिक सूत्र में अहिंसा, संयम और तप से युक्त धर्म को उत्कृष्ट मंगल माना गया है। धर्म वह तत्त्व है, जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख को धारण कराता है। धर्म के महत्त्व को बताते हुए कहा गया- - जन्म और मृत्यु के तेज प्रवाह में बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है, शरण है।
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