________________
91
4. कषाय आश्रव-आत्म-प्रदेशों में क्रोध आदि चार कषायों की उत्पत्ति का नाम कषाय आश्रव है।
5. योग आश्रव-योग का अर्थ है-प्रवृत्ति। मन, वचन और शरीर की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति रूप आत्मपरिणति का नाम योग आश्रव है। जहां प्रवृत्ति है, वहां बंधन है। अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ कर्म बंधन और शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्मबंधन होता है।
जब तक इन पांचों आश्रवों का निरोध नहीं होता, तब तक व्यक्ति बंधन से मुक्ति की दिशा में प्रस्थान नहीं कर सकता। 7. संवर
_ 'आश्रवनिरोधः संवरः' आश्रव का निरोध संवर है। आश्रव कर्म आने का द्वार है और उस द्वार को बंद कर देना संवर है। संवर आश्रव का विरोधी तत्त्व है। यह आते हुए कर्मों को रोकता है। जिस प्रकार मकान के दरवाजे, खिड़कियां खुली होती हैं तो मकान में हवा के साथ-साथ धूल आदि कचरा भी प्रवेश कर जाता है किन्तु दरवाजे, खिड़कियों को बंद कर देने पर धूल आदि कचरा भीतर प्रवेश नहीं करता। उसी प्रकार जो साधक कर्म-बंधन से मुक्ति चाहता है, वह पहले संवर की साधना करे। संवर के बाद निर्जरा के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की सफाई करे ताकि आत्मा कर्म-मलरहित हो शुद्ध और स्वच्छ बन सके। . संवर के प्रकार
जिस प्रकार आंधी आने पर पहले दरवाजे बंद कर दिये जाते हैं और फिर कचरे की सफाई की जाती है। उसी प्रकार आत्मशोधन के लिए पहले आश्रवरूपी द्वार को बंद किया जाता है। आश्रव द्वार पांच हैं-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग। संवर के पांच प्रकार हैं- जो इन पांच द्वारों का क्रमशः निरोध करते