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है। दोनों में मात्रा भेद है, स्वरूप भेद नहीं। जैसे जल की एक बूंद समुद्र का ही अंश है, वैसे ही निर्जरा भी मोक्ष का अंश है। अंतर इतना ही है कि मोक्ष में कर्म का सम्पूर्ण विलय होता है और निर्जरा में कर्म का आंशिक विलय होता है। निर्जरा के भेद - स्थानांग सूत्र में 'एगा णिज्जरा' निर्जरा एक है, ऐसा सामान्य की अपेक्षा कथन किया गया है, किन्तु जैसे एक ही स्वरूप वाली अग्नि काष्ठ, पाषाण, गोमय, तृणादि रूप कारणों के भेद से अनेक प्रकार की कही जाती है, वैसे ही तपस्या के बारह भेद होने से निर्जरा भी बारह प्रकार की कही गई है। परन्तु स्वरूप की दृष्टि से वह एक ही प्रकार की है। तप के बारह प्रकार को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है
1. बाह्य तप, 2. आभ्यन्तर तप।
बाझ तप
बाह्य तप वह है, जिसमें शारीरिक क्रिया की प्रधानता है तथा जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा सहित होने से दृष्टिगोचर होते हैं। इसमें मुख्यतः देह से संबंधित विकार दूर होते हैं। बाह्य तप के छः प्रकार हैं-1. अनशन, 2. ऊनोदरी, 3. भिक्षाचरी, 4. रसपरित्याग, 5. कायक्लेश, 6. प्रतिसंलीनता। आभ्यन्तर तप ..
आभ्यन्तर तप वह है, जिसमें मानसिक वृत्तियों की प्रधानता रहती है तथा इसमें प्रायः बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रहती। इसमें अन्त:करण में स्थित कामनाएँ, वासनाएँ, विकार आदि दूर होते हैं। आभ्यन्तर तप के भी छः-प्रकार हैं-1. प्रायश्चित्त, 2. विनय, 3.. वैयावृत्य, 4. स्वाध्याय, 5. ध्यान और 6. व्युत्सर्ग।