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सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, भूख-प्यास आदि द्वन्द्वों को समभाव से सहन करने की क्षमता अर्जित कर लेता है। 6. प्रतिसंलीनता
इन्द्रिय, मन आदि की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को वहां से हटाकर अन्तर्मुखी बनाने का नाम प्रतिसलीनता है। प्रतिसंलीनता के चार प्रकार
___ 1. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता-पांचों इन्द्रियों के विषय-भोगों का निरोध करना तथा इन्द्रियों से प्राप्त पदार्थों में राग-द्वेष न करना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है।
2. कषाय प्रतिसंलीनता-क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों के उदय का निरोध करना। यदि रोकते हुए भी इनका उदय हो जाये तो क्षमा आदि आलम्बन से उसे निष्फल करना कषाय प्रतिसंलीनता है।
3. योग प्रतिसंलीनता-मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना तथा उन्हें शुभ प्रवृत्ति में लगाना योग प्रतिसंलीनता है।
4. विविक्तशय्यासन-स्त्री, पशु, नपुंसक आदि से रहित निर्जन, एकान्त, शान्त स्थान पर रहना विविक्त शय्यासन है।
इस प्रकार अनशन से लेकर प्रतिसंलीनता तक के बाह्य तप क्रमशः भोगों को घटाते हुए पूर्ण संयमी बनने की साधना है। संयमी साधक में ही अन्तर्मुखी होने की पात्रता तथा आभ्यन्तर तप करने की योग्यता आती है। अतः आभ्यन्तर तप के लिए बाह्य तप आवश्यक है। 7. प्रायश्चित्त
दोष की विशुद्धि के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त में दो शब्दों का योग है-प्रायः और