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किन्तु उस खीर का थोड़ा-सा स्वाद थोड़ी देर के लिए बना रहता है। उसी तरह सम्यक् दृष्टि जीव का दृष्टिकोण जब मिथ्या बनता है तो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक पहुंचने के मध्य सम्यक्त्व का थोड़ा-सा स्वाद बना रहता है। अल्पकालीन आस्वाद होने के कारण इसका नाम सास्वादन-सम्यक्दृष्टि रखा गया है। 3. मिश्रदृष्टि गुणस्थान ___जिसकी दृष्टि न सर्वथा सम्यग् होती है और न सर्वथा मिथ्या, किन्तु मिश्रित होती है, उसे सम्यगमिथ्यादृष्टि या मिश्रदृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। यह आत्मा की सन्देह सहित दोलायमान अवस्था है। इस श्रेणी में रहने वाला व्यक्ति न इधर का रहता है और न उधर का। जैसे शर्करा से मिश्रित दही की रसानुभूति न केवल अम्ल होती है और न केवल मधुर, किन्तु मिश्रित होती है, उसकी अम्लता और मधुरता को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता वैसे ही इस गुणस्थान में सम्यक् और मिथ्या रुचि को पृथक् नहीं किया जा सकता है। पहले गुणस्थान और इस तीसरे गुणस्थान में यह भिन्नता है कि पहले गुणस्थान वाले की दृष्टि तत्त्व के प्रति एकांत रूप से मिथ्या होती है और इस गुणस्थान वाले की दृष्टि संदिग्ध-मिश्र होती है। इसका कालमान अन्तर्मुहूर्त का है। इस गुणस्थान में स्थित आत्मा शीघ्र ही अपनी तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार या तो मिथ्यात्व अवस्था को प्राप्त हो जाती है या सम्यक्त्व अवस्था को। इसीलिए इसका स्थान तीसरा रखा गया है। इसे पारकर व्यक्ति सम्यक्त्वी बन सकता है। 4. अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
इस चतुर्थ गुणस्थान में दृष्टिकोण पूर्णतः सम्यक् बन जाता है। इस दृष्टि वाला सही को सही और गलत को गलत समझता है, किन्तु वह किसी प्रकार का व्रत स्वीकार नहीं कर सकता अतः इसका