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अतः निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि आत्मा को अणु परिमाण मानने से शरीर में होने वाली सुख-दुःख की संवेदना न हो पाने से अणु परिमाण मानना उचित नहीं तथा आत्मा को व्यापक मानने से परलोक का ही अभाव हो जाने के कारण आत्मा को सर्वव्यापक मानना भी उचित नहीं ।
आत्मा के गुण शरीर में ही पाये जाते हैं अतः आत्मा को शरीर - परिमाण मानना ही उचित है।
5. आत्मा - शरीर
संबंध
विश्व व्यवस्था के सन्दर्भ में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैंद्वैतवादी और अद्वैतवादी । अद्वैतवादियों ने एक तत्त्व के आधार पर विश्व की व्याख्या की और द्वैतवादियों ने इसे दो तत्त्वों का विस्तार माना । अद्वैतवादियों में भी दो मत प्रसिद्ध हैं- चैतन्याद्वैतवाद और जड़ाद्वैतवाद, जो कि क्रमशः केवल चेतन और केवल जड़ तत्त्वों से सृष्टि की उत्पत्ति तथा विकास को स्वीकार करते हैं।
द्वैतवादियों के अनुसार यह जगत् केवल जड़ या केवल चेतन का विस्तार नहीं अपितु दोनों के संयोग और वियोग से इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है।
अद्वैतवादियों के सामने यह समस्या नहीं थी कि चेतन और जड़ का संबंध कैसे हुआ लेकिन द्वैतवादी के सामने यह समस्या खड़ी हों गई कि दो विसदृश पदार्थों का पारस्परिक संबंध कैसे संभव है? भारतीय दर्शन में संबंध की चर्चा
न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग आदि द्वैतवादी दर्शन हैं। सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष - इन दो विरोधी तत्त्वों को स्वीकार किया किन्तु पुरुष को निष्क्रिय, अकर्त्ता, अमूर्त मानकर विकास का सारा भार जड़ प्रकृति पर लाद दिया, जिसके कारण वह दर्शन जगत् में आलोचना का पात्र बना।