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कर्मबंधन दुःख है। वह बंधन पुण्य (शुभकर्म बंधन) और पाप ( अशुभकर्म बंधन) के भेद से दो प्रकार का है। दुःख या कर्मबंधन का कारण है – आश्रव । दुःख मुक्ति या कर्ममुक्ति का उपाय है - संवर और निर्जरा । दुःखमुक्त या कर्ममुक्त अवस्था है- मोक्ष। इस प्रकार कर्ममुक्ति या दुःखमुक्ति के लिए नौ तत्त्वों को जानना आवश्यक है।
1. जीव तत्त्व
नौ तत्त्वों में पहला तत्त्व है— जीव। जैन आगमों में जीव के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है; यथा - जीव, प्राणी, आत्मा, प्राण, भूत, सत्त्व, स्वयंभू, कर्त्ता आदि । जिसमें चेतना तथा सुख-दुःख का संवेदन होता है, उसे जीव कहा जाता है। 'उपयोग लक्षणो जीव:' इस परिभाषा के अनुसार उपयोग जीव का लक्षण है। उपयोग से तात्पर्य है— चेतना का व्यापार । चेतना के दो रूप हैं - ज्ञान और दर्शन । इनके व्यापार ( प्रवृत्ति) को उपयोग कहते
हैं।
जीव तत्त्व के मुख्यतः दो भेद किये गए हैं – संसारी और मुक्त। इस भेद का आधार कर्मबंधन है। जो जीव कर्म से बंधे हुए हैं, वे संसारी जीव कहलाते हैं। जो कर्मों से सर्वथा मुक्त हो गए हैं, वे मुक्तजीव हैं। नौ तत्त्वों में विवेचित प्रथम 'जीव तत्त्व' संसारी जीव और नवां 'मोक्ष तत्त्व' मुक्तजीव है। कर्मबंधन के कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण करता है। संसार में परिभ्रमण करने वाले संसारी जीव भी पुनः दो भागों में विभक्त हैं - त्रस और स्थावर । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति – ये एकेन्द्रिय जीव स्थावर जीव हैं। ये अपने सुख के लिए प्रवृत्ति और दुःख से निवृत्त होने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति नहीं कर सकते। एक ही स्थान पर स्थिर रहने के कारण इन्हें स्थावर जीव कहते हैं। स्थावर नामकर्म के उदय से ये जीव स्थावर बनते हैं। मनुष्य, देव, नारक, तथा दो इन्द्रियों से लेकर पांच इन्द्रियों तक के तिर्यंच जीव
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