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साधक या बाधक बनता है, वह पारमार्थिक पदार्थ तत्त्व है। इस प्रकार जैन दर्शन में तत्त्व को विस्तार से समझाने के लिए दो पद्धतियां काम में ली गई हैं-जागतिक और आत्मिक। जहां जगत् के विवेचन की प्रमुखता है, वहां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय- इन छ: तत्त्वों की चर्चा की जाती है और जहां आत्मतत्त्व की प्रमुखता है, वहां जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों का विवेचन किया जाता है। नौ तत्त्व
मोक्ष साधना में उपयोगी ज्ञेय पदार्थों को तत्त्व कहा जाता है। वे संख्या में नौ हैं
1. जीव-जिसमें चेतना हो, वह जीव है। ... 2. अजीव-जिसमें चेतना न हो, वह अजीव है। 3. बंध-आत्मा के साथ बंधे हुए कर्म-पुद्गलों का नाम
बंध है। 4. पुण्य-शुभ रूप से उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल पुण्य हैं। 5. पाप-अशुभ रूप से उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल पाप
6. आश्रव-कर्मपुद्गलों को ग्रहण करने वाली आत्मप्रवृत्ति
आश्रव है। 7. संवर-आश्रव का निरोध करने वाली आत्मपरिणति संवर
8. निर्जरा-तपस्या आदि के द्वारा कर्म-विलय होने से आत्मा ____ की जो आंशिक उज्ज्वलता होती है, वह निर्जरा है।। 9. मोक्ष-समस्त कर्मों से मुक्त हो आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित
होना मोक्ष है।