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त्रस कहलाते हैं। ये अपने सुख-दुःख की प्रवृत्ति और निवृत्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति कर सकते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से ये जीव त्रस बनते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि-निधन है। न इनकी आदि है और न ही इनका अन्त है। ये अक्षय और अविनाशी हैं। आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति सम्पन्न है। द्रव्य दृष्टि से इसका स्वरूप तीनों कालों में एक जैसा रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। अतः द्रव्य दृष्टि से आत्मा नित्य है। पर्याय दृष्टि से वह भिन्न-भिन्न रूपों में परिणत होता रहता है अतः पर्याय दृष्टि से वह अनित्य भी है। संसारी अवस्था में आत्मा और शरीर का संबंध दूध में मिले पानी, तिल में स्थित तेल की भांति एक प्रतीत होता है किन्तु जिस प्रकार दूध से पानी, तिल से तेल अलग है, उसी प्रकार आत्मा शरीर से अलग है। कर्मों के कारण अनादि काल से आत्मा और शरीर का संबंध बना हुआ है। प्रयत्न विशेष से जिस प्रकार दूध और पानी को, -तिल और तेल को अलग-अलग किया जा सकता है उसी प्रकार संवर और निर्जरा के द्वारा अनादि काल से स्थापित आत्मा और शरीर के संबंध को तोड़ा जा सकता है। समस्त कर्मों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। - 2. अजीव तत्त्व
अजीव तत्त्व जीव का प्रतिपक्षी है। जहां जीव तत्त्व सचेतन होता है वहां अजीव तत्त्व अचेतन होता है। अजीव तत्त्व के दो भेद हैं-अरूपी और रूपी। जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से युक्त होता है वह रूपी कहलाता है और जो इनसे रहित होता है वह अरूपी कहलाता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल-ये चार अरूपी अजीव तत्त्व हैं तथा एक पुद्गल रूपी अजीव तत्त्व है। ....... ----