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साधक न केवल अपनी आत्मा का उत्थान करता है अपितु समाज
में भी आदर्श माना जाता है।
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3. आत्मौपम्य की भावना - जैन आचारशास्त्र की तीसरी विरल विशेषता है - आत्मौपम्य दृष्टि । संसार के हर प्राणी को अपनी आत्मा के तुल्य समझो। जिस प्रकार हमें दुःख, कष्ट पसन्द नहीं है, हमें कोई दुःख, कष्ट देता है तो अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार संसार के हर प्राणी को दुःख और कष्ट पसन्द नहीं हैं, उन्हें कोई दुःख और कष्ट देता है तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता। दसवैकालिक सूत्र में कहा गया 'अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए' पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस - - इन सभी जीवों को अपने समान समझो। जिस साधक में यह आत्मौपम्य दृष्टि विकसित हो जाती है, वह अपने या दूसरों के स्वार्थ के लिए किसी को पीड़ा नहीं देता ।
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4. समभाव – जैन आचार शास्त्र की चौथी सर्वोत्कृष्ट विशेषता - समभाव, समता की साधना । कर्मों के उदय से साधक के जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां आती रहती हैं। कभी लाभ होता है कभी अलाभ, कभी सुख होता है कभी दुःख, कभी सम्मान होता है कभी अपमान, किन्तु साधक इन सभी परिस्थितियों में समभाव रखता है, अपना संतुलन नहीं खोता । समभाव की साधना से कर्मों की निर्जरा होती है, नए कर्मों का बंधन नहीं होता।
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5. युग की समस्याओं का समाधान- - जैन आचारशास्त्र में कुछ ऐसे शाश्वत मूल्यों का प्रतिपादन किया गया है, जो सार्वभौमिक और सार्वकालिक हैं। साथ ही युग की समस्याओं का समाधान देने वाले हैं। वर्तमान युग की तीन बड़ी समस्याएँ मानी जाती हैं - हिंसा, अभाव और आग्रह। इन तीनों ही समस्याओं का समाधान जैन दर्शन के अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्त में खोजा जा सकता है।
* हिंसा का समाधान अहिंसासमस्या है – हिंसा । व्यक्ति अपने थोड़े
-आज के युग की एक बड़ी से सुख के लिए दूसरों की